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प्रस्तावना
और भी बढ़ जाता है। इस स्तोत्रका प्रत्येक पद सूक्तार्थ, निर्दोष, अल्पाक्षर और प्रसादगुण विशिष्ट है । वास्तवमें इसका प्रत्येक पद बीज पद जैसा सूत्र वाक्य है । अतः इसको जैनागम कहना सर्वथा उचित है। कुछ ग्रन्थोंमें आगमरूपसे इसके वाक्योंका उल्लेख मिलता भी है । कवि वाग्भट्टने अपने काव्यानुशासनमें लिखा है-आगम आप्तवचनं यथा
'प्रजापतिर्यः प्रथमं जिजीविषुः शशास कृष्यादिषु' इत्यादि । आचार्य जटासिंहनन्दीने अपने वरांगचरितमें लिखा है
अनेकान्तोऽपि चैकान्तः स्यादित्येवं वदेत्परः ।
अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः इति जैनी श्रुतिः स्मृता ।। यहाँ स्वयम्भूस्तोत्रके ‘अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः' इस वाक्यको उद्धृत करते हुए उसे 'जैनी श्रुतिः' अर्थात् जैनागमका वाक्य बतलाया है।
स्वयम्भूस्तोत्रमें जो कुछ भी विवेचन किया गया है वह सब जैनागमके अनुकूल है। इसमें न तो कहीं प्रत्यक्षसे विरोध है और न आगमादि से विरोध है । अतः यह ग्रन्थ आगम तुल्य है । यथार्थमें आचार्य समन्तभद्रने युक्त्यनुशासन, आप्तमीमांसा आदि अन्य ग्रन्थोंमें भी प्रत्यक्ष और आगमसे अविरुद्ध अर्थका ही सर्वत्र प्ररूपण किया है । इसी कारण आचार्य जिनसेनने हरिवंशपुराण में 'वचः समन्तभद्रस्य वोरस्येव विजृम्भते' कहकर आचार्य समन्तभद्रके वचनको श्री वीर जिन के वचनके समान प्रकाशमान बतलाया है । स्वयम्भूस्तोत्र का प्रतिपाद्य विषय :
स्वयम्भूस्तोत्रका मुख्य प्रतिपाद्य विषय वृषभादि चतुर्विशति तीर्थंकरोंके अनन्त गुणोंमेंसे कुछ गुणोंका कीर्तन या नाममात्र कथन है । क्योंकि उनके अनन्त गुणोंका कथन संभव ही नहीं है । मोक्षमार्गनेतृत्व, कर्मभूभृद्भतृत्व, विश्वतत्त्वज्ञातृत्व और अनन्तचतुष्टय आदि आध्यात्मिक गुण सब तीर्थंकरोंमें समान हैं। सभी तीर्थकर स्वयम्भू हैं । और सभीने जम्बूद्वीपके भरतक्षेत्रमें उत्पन्न होकर अर्हन्त अवस्थाको प्राप्त किया है । इस दृष्टिसे सभी तीर्थंकर समान हैं। फिरभी देश, काल और परिस्थितिके अनुसार उनमें कुछ भेद भी है । जैसे प्रथम तीर्थंकर श्री वृषभ जिन कर्मभूमिके प्रारम्भमें अवतीर्ण होनेसे प्रजा को कृषि आदि छह कार्योंकी शिक्षा देनेके कारण प्रथम प्रजापति कहलाये । ___ इस स्तोत्रमें कुछ तीर्थंकरोंका स्तवन वर्णनात्मक है। जैसे प्रथम, सोलहवें, बाईसवें और तेईसवें तीर्थंकरोंके स्तवनमें उनकी जीवन सम्बन्धी घटनाओंका विशेष रूपसे वर्णन किया गया है। कुछ तीर्थंकरोंके स्तवनमें जैनधर्म एवं जैनदर्शनके
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