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सम्पादनसामग्री और उसकी योजना गच्छमें परम्परासे धर्मसूरि नामक आचार्य हुए। [सम्भवतः] इनके लिये नामडा गोत्रोत्पन्न साहु धनराजने इस ग्रन्थको लिखा । इससे ज्ञात होता है कि वर्तमान प्रति सं० १६६२ के बाद किसी समय लिखी गई है । प्रतिके कागज आदिकी स्थिति को देखते हुए लगता है कि यह उस प्रतिके बाद बहुत शीघ्र ही लिखी गई होगी।
प्रति १० इञ्च लम्बी ४३ इञ्च चौड़ी कागजके दोनों ओर लिखी हुई है। पत्रके बीचमें बाँधनेके लिये छेद करनेको स्थान छूटा हुआ है । लाल स्याहीसे हाँसिया बँधा है तथा विरामचिह्न मात्र खड़ी पाई दी गई है । संपूर्ण पत्र संख्या ५८१ है। प्रतिपत्र १३ पंक्तियाँ और प्रतिपंक्ति ३७-३८ अक्षर हैं। सम्पूर्ण ग्रन्थ १८ हजार श्लोक प्रमाण है । प्रतिमें सर्वत्र पञ्चमाक्षरके स्थानमें अनुस्वारका प्रयोग किया गया है । रेफ्के बादवाले अक्षरको द्वित्व किया गया है यथा कर्म धर्म आदि ।
[सम्पादन क्रम]
सिद्धिविनिश्चय मूलका उद्धार
सिद्धिविनिश्चयटीकाकी उक्त एकमात्र प्रतिसे अकलङ्कदेवके मूल सिद्धिविनिश्चय तथा उसकी स्वोपज्ञवृत्ति का सर्वप्रथम उद्धार हमने किया है । टीका खण्डान्वय पद्धतिसे लिखी हुई है। उसमेंसे एक-एक शब्द जोड़कर मूल श्लोक अनुष्टुप् मन्दाक्रान्ता रुग्धरा आदि छन्दोंमें यथास्थान बैठाये हैं । हमारा विश्वास है कि इस प्रयासमें बहुत हद तक सफलता मिली है । जैनदर्शनके या जैनेतर दर्शनके जिन-जिन प्रन्थों में प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयके श्लोक प्रमाण रूपमें या पूर्वपक्षके रूपमें उद्धृत मिलते हैं, उनका यथास्थान टिप्पणमें पाठशुद्धिकी साक्षीके रूपमें संग्रह किया गया है। इसी तरह अकलङ्कदेवकी स्ववृत्तिका उद्धार भी इसी टीकासे एक-एक शब्द जोड़कर किया है। टीकाकारने वृत्तिका व्याख्यान करते समय जहाँ यह लिख दिया है कि 'कारिकायाः सुगमत्वात् व्याख्यानमकृत्वा' 'शेष सुगमम्' यानी मूलकी प्रतीकको सरल समझकर प्रतीकका व्याख्यान ही नहीं किया है वहाँ मूलके शब्दोंके उद्धारका कोई साधन हमारे पास नहीं रहा । ऐसे एक-दो स्थल हैं जहाँ ग्रन्थान्तरोंके अवतरणसे मूलपाठकी पूर्तिमें भी सहायता मिली है । १८ हजार श्लोक प्रमाणवाले इस टीकासमुद्रसे ८०० श्लोक प्रमाण मूल सिद्धिविनिश्चय और उसकी वृत्तिके शब्दोंको चुनते समय पर्याप्त सावधानी रखनेपर भी यह सम्भव है कि कहीं मूलके शब्दरत्न टीकासमुद्रमें ही विलीन रह गये हों या टीकाके शब्द मूलकी तरह प्रतिभासित हुए हों और वे मूलके रूपमें संगृहीत हो गये हों । पर चूँकि साधनान्तरों के अभावमें मूलके उद्धार कार्यमें टीकाकी यह एकमात्र अशुद्धि प्रति ही हमें प्रमुख आलम्बन रही है, अतः जितना शक्य था उतने से ही सन्तोष कर लिया है। जिन शब्दोंकी पूर्ति हमने ग्रन्थान्तरोंके अवतरणसे की है उन्हें [ ] इस प्रकारके चतुष्कोण ब्रेकिटमें रखा है । टीका में आगे-पीछे भी मूलके वाक्योंको प्रमाण रूपमें उदधृत किया है। ऐसे स्थल मूलके पाठनिर्णयमें निकटतम साधक हुए हैं। टीकाकार ही मूल पाठका विशिष्ट और निकटतम साक्षी हो सकता है । इसीलिये इस टीकाप्राप्त इसी मूल ग्रन्थके 'वक्ष्यते या उक्तम्' के साथ आये हुए वाक्योंको हमने एक पृथक् परिशिष्टमें दे दिया है।
इस उदधृत मूल सिद्धिविनिश्चयमें श्लोक संख्या इस प्रकार है१ प्रत्यक्षसिद्धि-श्लो०२८।।
२ सविकल्पसिद्धि-श्लो० २९। ३ प्रमाणान्तरसिद्धि-श्लो० २४ । ४ जीवसिद्धि-श्लो० २४।। ५ जल्पसिद्धि-श्लो० २८३ ।
६ हेतुलक्षणसिद्धि-श्लो० ४३३ । ७ शास्त्रसिद्धि-श्लो० ३० ।
८ सर्वसिद्धि-श्लो० ४३ । ९ शब्दसिद्धि-श्लो० ४५ ।
१० अर्थनयसिद्धि-श्लो०२८ । ११ शब्दनयसिद्धि-श्लो० ३१ । १२ निक्षेपसिद्धि-श्लो० १६ ।
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