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ग्रन्थकार अकलङ्क समयनिर्णय (४) अकलङ्कको दन्तिदुर्गके समकालीन मानकर उनका समय यदि ई० ७२० से ७८० तक माना जाता है तब भी धवलाटीका (ई० ८१६) में उनके राजबार्तिकसे आगम प्रमाणके रूपमें अवतरण लिये जा सकते हैं; क्योंकि राजवार्तिक अकलङ्कके सैद्धान्तिक कालकी प्रथम कृति है । वह तत्त्वार्थकी टीकाओंमें इतनी परिपूर्ण और प्रमेयबहुल है कि उसकी अपने सम्प्रदाय और अपने ही प्रान्तमें प्रसिद्धिके लिए दस वर्षकी भी आवश्यकता नहीं थी।
(५) आचार्य सिद्धसेन गणी सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्रके व्याख्याकार हैं। इनका समय पं० सुखलालजीने ई० नवीं शताब्दीसे पहले और ७ वीं के बाद का निर्धारित किया है। इसका कारण भी दिया है कि गणिजीने धर्मकीर्तिका उल्लेख किया है तथा शक ७९९ (ई० ८७७) में हुए शीलांकाचार्यने आचारांगवृत्तिमें इनका उल्लेख किया है, अतः ये ई० ८ वीं सदीके उत्तरार्धके विद्वान् हैं । पंडितजीकी सम्भावना है कि-"अकलङ्क गन्धहस्ती (सिद्धसेन) तथा हरिभद्र ये अपने दीर्घजीवनमें थोड़े समयतक भी समकालीन रहे होंगे" और यदि यह सम्भावना ठीक है तो ई० ८ वीं सदीके उत्तरार्धके विद्वान् सिद्धसेन अकलङ्कके राजवार्तिकको देख सकते हैं।
यद्यपि आर्यशिवस्वामीके एक सिद्धिविनिश्चयका और पता चला है फिर भी सिद्धसेन गणि कृत तत्त्वार्थभाष्य टीका (पृ० ३७) का यह उल्लेख
"एवं कार्यकारणसम्बन्धः समवायपरिणामनिमित्तनिवर्तकादिरूपः सिद्धिविनिश्चयसृष्टिपरीक्षातो योजनीयो विशेषार्थिना दूषणद्वारेणेति ।'
सिद्धिविनिश्चयके ७ वे शास्त्रसिद्धि प्रस्तावके श्लोक १३ के बाद निबद्ध ईश्वरनिराकरण प्रकरणसे तुलनीय है । यथा"तत्परिणामोपगमेऽपि समवायिकारणत्वस्थित्वाप्रवृत्स्यादेश्च परिणामिन एव सम्भवात्.."
-सिद्धिवि० टी० पृ० ४७७ । सम्भावना यही है कि सिद्धसेन गणीने अकलङ्कके इसी ग्रन्थके इस प्रकरणकी ओर ही संकेत किया है । तब भी इससे अकलङ्कके ई० ८ वीं शताब्दीवाले समयपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
(६) आ० हरिभद्रसूरिका समय मुनि श्री जिनविजयजीने कुवलयमाला कथा (ई० ७७७)में उद्योतनसूरि द्वारा हरिभद्रका स्मरण होनेसे तथा अन्य आन्तरिक प्रमाणों के आधारसे ई० ७००-७७० निर्धारित
उस संवत्का नाम जिस विक्रमादित्यके नामसे पड़ा वही शकको मारनेवाला विक्रमादित्य नहीं है, केवल दोनोंका नाम एक है (पृ. ८२४-२५) इस पर एक शंका उपस्थित होती है शालिवाहनवाली अनुश्रुतिके कारण । अल्बेरुनी स्पष्ट कहता है कि ७८ ई० का संवत् राजा विक्रमादित्य (सातवाहन) ने शकको मारनेकी यादगारमें चलाया । वैसी बात ज्योतिषी भट्टोत्पल (ई० ९९६) और ब्रह्मगुप्त (ई० ६२८) ने भी लिखी है। यह संवत् अब भी पंचांगोंमें शालिवाहन शक अर्थात् शालिवाहनाब्द कहलाता है।"-भारतीय इतिहासकी रूपरेखा पृ० ८३६ ।।
ऊपर दिये गये अवतरणोंसे इतनी बात सिद्ध हो जाती है कि विक्रमादित्य (सातवाहन) ने शकको मारकर अपनी विजयके उपलक्ष्यमें एक संवत् चलाया था, जो सातवीं शताब्दी (ब्रह्मगुप्त) से ही शालिवाहनाब्द माना जाता है। धवला टीका आदिमें जिस 'विक्रमाङ्क शकसंवत्' का उल्लेख आता है वह यही शालिवाहन शक होना चाहिए। उसका 'विक्रमाङ्क शक या विक्रमार्कशक' नाम शक विजयके उपलक्ष्यमें विक्रम द्वारा चलाये गये शक संवत्की स्पष्ट सूचना कर रहा है
(१) तत्त्वार्थ० प्रस्ता० पृ० ४६ । (२) जैन सा० नो सं० इ० पृ० १८१ । (३) तत्त्वार्थ. प्रस्ता० पृ० ४३ टि० २।। (४) अकलङ्कग्रन्थत्रय प्रस्ता० पृ०१०। (५) देखो आगे पृ० ५३।
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