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विषयपरिचय: प्रत्यक्षप्रमाणमीमांसा
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ज्ञान फल रूप हैं । धारणाके साथ अवायका भी ऐसा ही प्रमाणफलभाव है । अवायकी दृढतम अवस्था धारणा कहलाती है और यह प्रत्यक्ष ज्ञानका ही भेद है । अकलङ्कदेव इस धारणाको ही संस्कार कहते हैं । इसका प्रबोध आगे स्मरण में कारण होता है । इसमें इतना ही विवेक आवश्यक है कि अवायोत्तर काल में होनेवाली धारणा जबतक इन्द्रियव्यापारका अनुविधान करती है तभीतक वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें अन्तर्भूत है । आगे वही इन्द्रियव्यापार बदल जानेपर संस्कार अवस्थाको प्राप्त हो जाती है ।
इस विवेचनका फलितार्थ यह हुआ कि जैन दर्शनमें कोई ज्ञान निर्विकल्पक नहीं होता । जो निर्विकल्पक हैं वह दर्शन है और उसका पर्यवसान अन्ततः स्वात्मावलोकनमें होता है, अतः वह प्रमाण विचार के बहिर्भूत है । प्रमाणव्यवहार ज्ञान अवस्था से होता है और ज्ञान सदा सविकल्पक ही होता है । उसमें निश्चयात्मकता ही सविकल्पकता है । किसी भी ज्ञानमें शब्दका संसर्ग होने या न होनेसे प्रमाणता और प्रमाणत का कोई सम्बन्ध नहीं है । यह तर्क भी उचित नहीं है कि जब पदार्थ स्वयं शब्दशून्य है तब उससे शब्दसंसर्गवाला सविकल्पक ज्ञान कैसे उत्पन्न हो सकता है ? क्योंकि जिस प्रकार शब्दशून्य निर्वि कल्पकसे सविकल्पक ज्ञानके उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं है उसी तरह शब्दशून्य अर्थसे सविकल्पक ज्ञान भी उत्पन्न हो सकता है ।
नैयायिक के द्वारा जो निर्विकल्पक ज्ञानका वर्णन किया गया है वह तो एक प्रकारसे निश्चयात्मक ज्ञानका ही वर्णन है । घट और घटत्वका जुदा-जुदा प्रतिभास होना निर्विकल्पक है और घटत्वविशिष्ट घटका विशिष्टवैशिष्ट्यावगाही प्रतिभास होना सविकल्पक है । निश्चयात्मक ज्ञानोंकी ये दो सीमाएँ इसलिये बाँधनी पड़ीं कि नैयायिक सामान्यपदार्थ पृथक मानता है । किन्तु जब सामान्य भी वस्तुरूप ही फलित होता है तब इस प्रकारका ज्ञानभेद मानना बहुत उपयोगी नहीं रह जाता । नैयायिककी तरह मीमांसक भी निर्विकल्पक-सविकल्पक दोनोंको ही प्रमाण मानता है ।
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केवलज्ञानकी सिद्धि और इतिहास -
समस्त ज्ञानावरणके समूल नाश होनेपर प्रकट होनेवाला निरावरण ज्ञान केवल ज्ञान है । यह आत्ममात्रसापेक्ष होता है । यह केवल अर्थात् असहाय - अकेला होता है । इस ज्ञान के उत्पन्न होते ही समस्त क्षायोपशमिक ज्ञान विलीन हो जाते हैं। यह समस्त द्रव्योंकी सर्व पर्यायों को विषय करता है, अतीन्द्रिय और सम्पूर्ण निर्मल होता है । इसकी प्राप्ति से मनुष्य सर्वज्ञ हो जाता है । ज्ञेय स्वल्प हो जाते हैं । यह ज्ञान सर्वतः अनन्त होता है ।
प्राचीन काल में भारतवर्षकी परम्परा के अनुसार सर्वज्ञताका सम्बन्ध भी मोक्षके साथ ही था । मुमुक्षुओंमें विचारणीय विषय तो यह था कि मोक्ष तथा मोक्षके मार्गका किसीने साक्षात्कार किया है ? यह मोक्ष मार्ग धर्म शब्द से निर्दिष्ट होता है । अतः सीधे विवादका विषय यह रहा कि धर्मका साक्षात्कार हो सकता है या नहीं । एक पक्षका, जिसके अनुगामी शबर, कुमारिल आदि मीमांसक हैं, कहना था कि-धर्म जैसी अतीन्द्रिय वस्तुएँ हम लोग प्रत्यक्षसे नहीं जान सकते । धर्म के सम्बन्धमें वेदका ही अन्तिम और निर्बाध अधिकार है । धर्मकी परिभाषा "चोदनालक्षणोऽर्थः धर्मः" करके धर्ममें वेदको ही प्रमाण माना है । इस धर्ममें वेदको हो अन्तिम प्रमाण माननेके कारण उन्हें पुरुष में अतीन्द्रियार्थविषयक ज्ञानका अभाव मानना पड़ा। उन्होंने पुरुषमें राग द्वेष और अज्ञान आदि दोषोंकी शंका होनेसे अतीन्द्रियधर्मप्रतिपादक वेदको पुरुषकृत न मानकर अपौरुषेय माना है । इस अपौरुषेयत्वकी भावनासे ही पुरुषमें सर्वज्ञताका अर्थात् प्रत्यक्षसे होनेवाली धर्मज्ञताका निषेध हुआ है । कुमारिल स्पष्ट लिखते हैं कि- सर्वज्ञत्वके निषेधसे हमारा तात्पर्य केवल धर्मज्ञत्वके निषेधसे है । धर्मके सिवाय यदि कोई पुरुष संसार के समस्त अर्थों को जानना चाहता है तो भले ही जाने, हमें कोई
(१) “पूर्व पूर्व प्रमाणत्वं फलं स्यादुत्तरोत्तरम्" - लघी० श्लो० ६ ।
(२) "धर्मज्ञत्वनिषेधश्च केवलोऽत्रोपयुज्यते ।
सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ॥ " - तत्त्वसं० का० ३१२८| (कुमारिलके नामसे उद्धृत ) ।
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