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विषयपरिचय : आगम-प्रमाणमीमांसा
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अवश्यंभावी है', ऐसा नियम है तब स्वपक्षसिद्धि और पक्षनिराकृति ही जय-पराजयके आधार माने जाने चाहिये । बौद्ध वचनाधिक्य आदिको भी दूषणोंमें शामिल करके कुछ उलझ जाते हैं।
सीधी बात है कि परस्पर दो विरोधी पक्षोंको लेकर चलनेवाले वादमें जो भी अपना पक्ष सिद्ध करेगा वह जयलाभ करेगा और अर्थात् ही दूसरेके पक्षका निराकरण होनेके कारण पराजय होगा । यदि कोई भी अपनी पक्षसिद्धि नहीं कर पाता और एक वादी या प्रतिवादी वचनाधिक्य कर जाता है तो इतने मात्रसे उसका पराजय नहीं होना चाहिये । या तो दोनों का ही पराजय हो या दोनोंको ही जयाभाव रहे। अतः स्वपक्षसिद्धि और पर पक्षनिराकरण-मूलक ही जय-पराजयव्यवस्था सत्य और अहिंसाके आधारसे न्याय्य है। छो मोटे वचनाधिक्य आदिके कारण न्यायतुलाको नहीं बिगड़ने देना चाहिये । वादी सच्चा साधन बोलकर अपने पक्षकी सिद्धि करनेके बाद वचनाधिक्य और नाटकादिकी घोषणा भी करे, तो भी वह जयी ही होगा। इसी तरह प्रतिवादी वादीके पक्षमें यथार्थ दूषण देकर अपने पक्षकी सिद्धि कर लेता है, तो वह भी वचनाधिक्य करनेके कारण पराजित नहीं हो सकता । इस अवस्थामें एक साथ दोनोंको जय या पराजयका प्रसंग नहीं आ सकता | एककी स्वपक्षसिद्धिमें दूसरेके पक्षका निराकरण गर्भित है ही, क्योंकि प्रतिपक्षकी असिद्धि बताये बिना स्वपक्षकी सिद्धि परिपूर्ण नहीं होती। पक्षक ज्ञान और अज्ञानसे जय-पराजय व्यवस्था माननेपर . पक्ष प्रतिपक्षका परिग्रह करना ही व्यर्थ हो जाता है; क्योंकि किसी एक ही पक्ष में वादी और प्रतिवादीके ज्ञान और अज्ञानकी जाँच की जा सकती है। शब्दका स्वरूप
श्रत या आगमके निरूपणके पहिले शब्दके स्वरूपका ज्ञान कर लेना इसलिये आवश्यक है किश्रुत प्रमाणका सम्बन्ध शब्दसे ही है और इसीमें संकेत ग्रहण करके अर्थबोध किया जाता है।
शब्द' पुद्गल स्कन्धकी पर्याय है जैसे कि छाया और आतप । कंठ तालु आदि भौतिक कारणोंके अभिघातसे प्रथमशब्द वक्ताके मुखमें उत्पन्न होता है । उसीको निमित्त पाकर विश्वमें सर्वत्र व्याप्त पुद्गल स्कन्ध शब्दायमान होकर झनझना जाते हैं। जैसे किसी जलाशयमें पत्थर फेंकनेपर पहिली लहर पत्थर और जलके अभिघातसे उत्पन्न होती है और आगेकी लहरें उस प्रथम लहरसे उत्पन्न होती हैं, उसी तरह वीचीतरङ्ग न्यायसे आगेके शब्दोंकी उत्पत्ति और प्रसार होता है। आजका विज्ञान शब्दको एक शक्ति मानता है जो ईथरके माध्यमसे सर्वत्र गति करती है। जहाँ उसके ग्राहक यन्त्र (Receiver) मिल जाते हैं वहाँ वह गृहीत हो जाता है। इस प्रक्रियामें जैनोंका कोई विरोध नहीं है। उनका इतना ही कहना है कि शक्ति कभी भी निराश्रय नहीं होती, वह सदा शक्तिमानमें रहती है। अतः शक्तिका गमन न मानकर शक्तिमान् सूक्ष्म पुद्गल द्रव्योंका गमन मानना चाहिए । शब्दको पौद्गलिक माननेसे रिकार्ड के पदलोंमें ऐसे सूक्ष्म संस्कार उत्पन्न हो जाते हैं कि जब भी सुईकी नोकका संपर्क मिलता है उनकी शब्द पर्याय प्रकट हो जाती है। पुद्गलमें अनन्त शक्तियाँ हैं। निमित्त मिलते ही वे शक्तियाँ विकसित हो जाती हैं। कुछ पर्यायें ऐसी होती हैं जो जबतक निमित्तका सन्निधान रहता है तभी तक रहती हैं जैसे दर्पणमें होनेवाली प्रतिबिम्ब पर्याय । जब तक बिम्ब सामने रहता है तबतक उसके सन्निधानसे दर्पणके पुद्गल स्कन्ध नियतरूपसे उसके आकारकी पर्यायको धारण करते हैं जैसे ही वह बिम्ब हटा तैसे ही वह पर्याय समाप्त होकर दूसरी पर्याय आ जाती है। कुछ पर्यायें ऐसी होती हैं जो निमित्तके सन्निधानसे उत्पन्न होकर भी जबतक उसका संस्कार रहता
। जैसे आगीके संयोगसे क्रमशः पानी में आयी उष्णता अग्निके हटा लेनेपर भी जबतक उसका संस्कार रहता है, हीनाधिकरूपमें कायम रहती है, पीछे वह ठंडा हो जाता है । पुद्गलकी शब्द पर्याय भी जबतक अभिघातका संस्कार रहता है तबतक स्थूल या सूक्ष्म रूपमें बनी रहती है। उसका संस्कार तो रिकार्ड में बहुत कालतक रहता है और जैसे ही फिर निमित्त मिलता है वह जागृत होकर नया शब्द उत्पन्न कर देता है । शब्दके उपादानभूत पुद्गल स्कन्ध अनन्त हैं, अतः जिनमें जैसा स्थूल सूक्ष्म सूक्ष्मतर या
(१) "शब्दः पुद्गलपर्यायः स्कन्धः छायातपादिवत्"-सिद्धिवि० ९।२।
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