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प्रस्तावना
विशेष 'नय है जो प्रमाणके द्वारा जानी गयी वस्तुके एक देशको स्पर्श करता है । वस्तु अनन्तधर्मवाली है। प्रमाणज्ञान उसे समग्रभावसे ग्रहण करता है, उसमें अंशविभाजन करनेकी ओर उसका लक्ष्य नहीं होता। जैसे 'यह घडा है' इस ज्ञानमें प्रमाण घड़ेको अखंडभावसे उसके रूप रस गन्ध स्पर्श आदि अनन्त गुणधर्मोका विभाग न करके पूर्णरूपमें जानता है जब कि नय उसका विभाजन करके 'रूपवान् घटः' 'रसवान् घटः' आदि रूपमें उसे अपने-अपने अभिप्रायके अनुसार जानता है। एक बात ध्यानमें रखनेकी है कि प्रमाण
और नय ज्ञानकी ही वृत्तियाँ हैं, ज्ञानात्मक पर्यायें हैं ? जब ज्ञाताकी सकलग्रहणकी दृष्टि होती है तब उसका ज्ञान प्रमाण होता है और जब उसी प्रमाणसे गृहीत वस्तुको खंडशः ग्रहण करनेका अभिप्राय होता है तब वह अंशग्राही अभिप्राय नय कहलाता है। प्रमाणज्ञान नयकी उत्पत्तिके लिये भूमि तैयार करता है।
यद्यपि छद्मस्थोंके सभी ज्ञान वस्तुके पूर्णरूपको नहीं जान पाते फिर भी जितनेको वह जानते हैं उनमें भी उनकी यदि समग्रग्रहणकी दृष्टि है तो वे सकलग्राही ज्ञान प्रमाण हैं और अंशग्राही विकलज्ञान नय । 'रूपवान् घटः' यह ज्ञान भी यदि रूपमुखेन समस्त घटका ज्ञान अखंडभावसे करता है तो प्रमाणकी ही सीमामें
है और घटके रूप रस आदिका विभाजनकर यदि घड़ेके रूपको मुख्यतया जानता है तो वह नय कहलाता है। प्रमाणके जाननेका क्रम एक देशके द्वारा भी समग्रकी तरफ है जब कि नय समग्र वस्तुको विभाजितकर उसके अंशविशेषकी ओर झुकता है। प्रमाण चक्षुके द्वारा रूपको देखकर भी उस द्वारसे पूरे घड़ेको आत्मसात् करता है और नय उस घड़ेके खण्डकर उसके रूप आदि अंशोंको जाननेकी ओर झुकता है । इसीलिये प्रमाणको सकलादेशी और नयको विकलादेशी कहा है । प्रमाणके द्वारा जानी गई वस्तुको शब्दकी तरंगोंसे अभिव्यक्त करनेके लिए जो ज्ञानकी रुझान होती है वह नय है। नय प्रमाणका एक देश है
'नय प्रमाण है या अप्रमाण ?' इस प्रश्नका समाधान 'हाँ और ना' में नहीं किया जा सकता ? जैसे कि घड़ेमें भरे हुए समुद्रके जलको न तो समुद्र कह सकते हैं और न असमुद्र ही । नय' प्रमाणसे उत्पन्न होता है अतः प्रमाणात्मक होकर भी अंशग्राही होनेके कारण पूर्ण प्रमाण नहीं कहा जा सकता और अप्रमाण तो वह हो ही नहीं सकता। अतः जैसे घड़ेका जल समुद्रैकदेश है उसी तरह नय भी प्रमाणैकदेश' है अप्रमाण नहीं । नयके द्वारा ग्रहण की जानेवाली वस्तु भी न तो पूर्ण वस्तु कही जा सकती है और न अवस्तु किन्तु वस्त्वेकदेश ही वह हो सकती है। तात्पर्य यह कि प्रमाणसागरका वह अंश नय है जिसे ज्ञाताने अपने अभिप्रायके पात्र में भर लिया है । उसका उत्पत्तिस्थान समुद्र ही है, पर उसमें वह विशालता और समग्रता नहीं है जिससे उसमें सब समा जाता है । लोग जैसे अपने छोटे-बड़े पात्रके अनुसार ही जल ग्रहण करते हैं उसी तरह प्रमाणकी रंगशालामें नय अनेक रूपों और वेशों में अपना नाटक रचता है।
सुनय दुर्नय-यद्यपि अनेकान्तात्मक वस्तुके एक-एक अंश अर्थात् धर्मोको विषय करनेवाले अभिप्रायविशेष प्रमाणकी सन्तान हैं पर इनमें यदि सुमेल, परस्परप्रीति और अपेक्षा है तो ही ये सुनय हैं अन्यथा दुर्नय । नय अनेकान्तात्मक वस्तुके अमुक अंशको मुख्यभावसे ग्रहण करके भी अन्य अंशोंका निराकरण नहीं करता, किन्तु उनके प्रति तटस्थभाव रखता है। पिताकी जायदादमें जैसे सभी सन्तानोंका समान हक होता है और सपूत वही कहा जाता है जो अपने अन्य भाइयोंके हकको ईमानदारीसे स्वीकार करता है, उनके हड़पनेकी कुचेष्टा नहीं करता किन्तु सद्भाव ही उत्पन्न करता है, उसी तरह अनन्तधर्मा वस्तुमें सभी नयोंका समान अधिकार है और सुनय वही कहा जायगा जो अपने अंशको मुख्यरूपसे ग्रहण करके भी अन्यके
(6) "ज्ञातॄणामभिसन्धयः खलु नयाः"-सिद्धिवि० १०१। "नयो ज्ञातुरभिप्रायः"-लघी. श्लो० ५२। (२) सिद्धिवि० १०३ । (३) “नायं बस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः।
नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्रांशो यथोच्यते ॥" -त० श्लो०१६। नयविवरण श्लो० ६ ।
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