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विषयपरिचय: नयमीमांसा - स्याद्वाद
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रहनेकै कारण हुई । अतः वस्तु उत्पादादित्रयात्मक हैं । दूधको जमाकर दही बनाया गया तो जिस व्यक्तिको दूध खाने का व्रत है वह दहीको नहीं खायगा पर जिसे दही खानेका व्रत है वह दहीको तो खा लेगा पर दूधको नहीं खायगा । और जिसे गोरसके त्यागका व्रत है वह न दूध खायगा और न दही; क्योंकि दोनों ही अवस्थाओंमें गोरसत्व है ही । इससे ज्ञात होता है कि गोरसकी ही दूध और दही दोनों पर्यायें थीं ।
पातञ्जल' महाभाष्य में भी पदार्थके त्रयात्मकत्वका समर्थन शब्दार्थ मीमांसा के प्रकरण में मिलता है । आकृति नष्ट होनेपर भी पदार्थकी सत्ता बनी रहती है । एक ही क्षणमें वस्तुके त्रयात्मक कहनेका स्पष्ट अर्थ यह है कि पूर्वका विनाश और उत्तरका उत्पाद दो चीजें नहीं हैं किन्तु एक कारणसे उत्पन्न होनेके कारण पूर्व विनाश ही उत्तरोत्पाद है । जो उत्पन्न होता है वही नष्ट होता है और वही ध्रुव है। सुननेमें तो ऐसा लगता है कि जो उत्पन्न होता है और नष्ट होता है वह ध्रुव कैसे हो सकता है ? यह तो प्रकट विरोध है । परन्तु वस्तुस्थितिका थोड़ी स्थिरता से विचार करनेपर यह कुछ भी अटपटा नहीं है । इसके माने बिना तत्त्वके स्वरूपका निर्वाह ही नहीं हो सकता ।
भेदाभेदात्मक तत्त्व-गुण और गुणीमें, सामान्य और सामान्यवान् में, अवयव और अवयवी में, कारण और कार्य में सर्वथा भेद माननेसे गुण-गुणी भाव आदि नहीं बन सकते । सर्वथा अभेद माननेपर गुण-गुणी व्यवहार नहीं हो सकता । गुण यदि गुणीसे सर्वथा भिन्न है तो अमुक गुणका अमुक गुणीसे ही सम्बन्ध कैसे नियत किया जा सकता है ? अवयवी यदि अवयवोंसे सर्वथा भिन्न है तो एक अवयवी अपने अवयवोंमें सर्वात्मना रहेगा या एकदेश से ? यदि पूर्णरूपसे; तो जितने अवयव हैं उतने ही अवयवी मानने होंगे । यदि एकदेशसे; तो जितने अवयव उतने प्रदेश उस अवयवीके स्वीकार करने होंगे । इस तरह अनेक दूषण सर्वथा भेद और अभेद पक्षमें आते हैं अतः तत्त्वको पूर्वोक्त प्रकारसे कथञ्चित् भेदाभेदात्मक मानना चाहिये । जो द्रव्य है वही अभेद है और जो गुण और पर्याय हैं वही भेद है । दो पृथक सिद्ध द्रव्यों में • जिस प्रकार अभेद काल्पनिक है उसी तरह एक द्रव्यका अपने गुण और पर्यायोंसे भेद मानना भी सिर्फ समझने और समझानेके लिए हैं। गुण और पर्यायको छोड़कर द्रव्यका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है जो इनमें रहता हो ।
इसी तरह अन्यानन्यात्मक, पृथक्त्वा पृथक्त्वात्मक तत्त्वकी भी व्याख्या कर लेनी चाहिये ।
धर्म धर्मभावका व्यवहार भले ही आपेक्षिक हो पर स्वरूप तो स्वतः सिद्ध ही है । जैसे एक ही व्यक्ति विभिन्न अपेक्षाओंसे कर्ता कर्म करण आदि कारकरूपसे व्यवहारमें आता है पर उस व्यक्तिका स्वरूप स्वतःसिद्ध ही हुआ करता है, उसी तरह अनन्तधर्मा प्रत्येक पदार्थ में अनन्त धर्म स्वरूप सिद्ध होकर भी परकी अपेक्षासे व्यवहारमें आते हैं । निष्कर्ष इतना ही है कि प्रत्येक अखंड तत्त्व या द्रव्यको व्यवहारमें उतारने के लिये उसका अनेक धर्मों के आकार के रूपमें वर्णन किया जाता है; धर्मोंकी उस द्रव्यको छोड़कर स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । दूसरे शब्दोंमें अनन्त - गुणपर्याय और धर्मोंको छोड़कर द्रव्यका कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है । कोई ऐसा समय नहीं आ सकता जब गुणपर्यायशून्य द्रव्य पृथक् मिल सके या द्रव्यसे भिन्न गुण और पर्यायें दिखाई जा सकें ।
( १ ) " पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः ।
अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥" - आप्तमी० श्लो० ६० ।
(२) " द्रव्यं हि नित्यमाकृतिरनित्या सुवर्णं कयाचिदाकृत्या युक्तं पिण्डो भवति, पिण्डाकृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते, रुचकाकृतिमुपमृद्य कटकाः क्रियन्ते, कटका कृतिमुपमृद्य स्वस्तिकाः क्रियन्ते, पुनरावृत्तः सुवर्णपिण्डः, पुनरपरया आकृत्या युक्तः खदिराङ्गरसदृशे कुण्डले भवतः, आकृतिरन्या अन्या च भवति, द्रव्यं पुनस्तदेव, आकृत्युपमर्देन द्रव्यमेवावशिष्यते । " - पात० महाभा० १|१|१| योगभा० ४। १३ ।
(३) आप्तमी० श्लो० ७३-७५ ।
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