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विषयपरिचय : नयमीमांसा-स्याद्वाद
१५७ रोगीको तत्काल कटु तो अवश्य लगती है पर इसके बिना यह दृष्टिविषमज्वर उतर भी नहीं सकता।
वस्तुकी अनन्तधर्मात्मकता-वस्तु अनेकान्तरूप है यह बात थोड़ा गंभीर विचार करते ही अनुभवमें आ जाती है, और यह भी प्रतिभासित होने लगता है कि हमारे क्षुद्रज्ञानने कितनी उछल कूँद मचा रखी है तथा वस्तुके विराट स्वरूपके साथ खिलवाड़ कर रखी है। पदार्थ भावरूप भी है और अभाव रूप भी है। यदि सर्वथा भावरूप माना जाय यानी द्रव्यकी पर्यायको भी भावरूप स्वीकार किया जाय तो प्रागभाव प्रध्वंसाभाव अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव इन चार अभावोंका लोप हो जानेसे पर्यायें भी अनादि अनन्त और सर्वसंकररूप हो जायगी तथा एक द्रव्य दूसरे द्रव्यरूप होकर प्रतिनियत द्रव्यव्यवस्थाको समाप्त कर देगा।
सदसदात्मकत्व-प्रत्येक द्रव्यका अपना असाधारण स्वरूप होता है । उसका निजी क्षेत्र काल और भाव होता है जिनमें उसकी सत्ता सीमित रहती है । सूक्ष्मविचार करनेपर क्षेत्र काल और भाव अन्ततः द्रव्यकी असाधारण स्थितिरूप ही फलित होते हैं। यह द्रव्य क्षेत्र काल और भावका चतुष्टय स्वरूपचतुष्टय कहलाता है। प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूपचतुष्टयसे सत् होता है पररूपचतुष्टयसे असत् । यदि स्वरूपचतुष्टयकी तरह पररूपचतुष्टय से भी सत् मान लिया जाय तो स्व और परमें कोई भेद नहीं रहकर सबको सर्वात्मकताका प्रसंग प्राप्त होता है । यदि पररूपकी तरह स्वरूपसे भी असत् हो जाय तो निःस्वरूप होनेसे अभावात्मकताका प्रसंग होता है। अतः लोककी प्रतीतिसिद्ध व्यवस्थाके लिये प्रत्येक पदार्थको स्वरूपसे सत् और पररूपसे असत् मानना ही चाहिये । द्रव्य एक अखंड मौलिक तत्त्व है। पुद्गल द्रव्योंमें ही परमाणुओंके परस्पर संयोगसे छोटे-बड़े अनेक स्कन्ध तैयार होते हैं। ये स्कन्ध संयुक्तपर्यायरूप हैं। अनेक द्रव्योंके संयोगसे ही घट पट आदि स्थूल पदार्थोकी सृष्टि होती है। ये संयुक्त स्थूलपर्यायें भी अपने द्रव्य अपने क्षेत्र अपने काल और अपने असाधारण निजधर्मकी दृष्टि से 'सत्' हैं और परद्रव्य परक्षेत्र परकाल और परभावकी दृष्टिसे असत् हैं। इस तरह कोई भी पदार्थ इस सदासदात्मकताका अपवाद नहीं हो सकता ।
एकानेकात्मक तत्व-हम पहिले लिख चुके हैं कि दो द्रव्य व्यवहारके लिये ही एक कहे जा सकते हैं वस्तुतः दो पृथक् स्वतन्त्र सिद्ध द्रव्य एकसत्ताक नहीं हो सकते । पुद्गल द्रव्यके अनेक अणु जब स्कन्ध अवस्थाको प्राप्त होते हैं तब उनका रासायनिक मिश्रण होता है जिससे वे अमुककालतक एकसत्ताक जैसे हो जाते हैं। ऐसी दशामें हमें प्रत्येक द्रव्यका विचार करते समय द्रव्य दृष्टिसे उसे एक मानना होगा और गुण तथा पर्यायोंकी दृष्टि से अनेक । एक ही मनुष्यजीव अपनी बाल युवा और वृद्ध आदि अवस्थाओंकी दृष्टिसे अनेक अनुभव में आता है । द्रव्य गुण और पर्यायोंसे, संज्ञा संख्या लक्षण प्रयोजन आदिकी अपेक्षा भिन्न होकर भी चूँकि द्रव्यसे पृथक गुण और पर्यायोंकी सत्ता नहीं पाई जाती या प्रयत्न करके भी हम द्रव्यसे गुणपर्यायोंका विवेचन-पृथक्करण नहीं कर सकते अतः अभिन्न है। सत् सामान्यकी दृष्टिसे समस्त द्रव्योंको एक कहा जा सकता है और अपने-अपने व्यक्तित्वकी दृष्टि से पृथक् अर्थात् अनेक । इस तरह समग्र विश्व अनेक होकर भी व्यवहारार्थ संग्रहनयकी दृष्टि से एक कहा जाता है। एक द्रव्य अपने गुण और पर्यायोंकी दृष्टिसे अनेकात्मक है । एक ही आत्मा सुख-दुःख ज्ञान आदि अनेकरूपसे अनुभवमें आता है । द्रव्यका लक्षण अन्वयरूप है जब कि पर्याय व्यतिरेकरूप होती हैं। द्रव्यकी एक संख्या है और पर्यायोंकी अनेक । द्रव्यका प्रयोजन अन्वयज्ञान है और पर्यायका प्रयोजन व्यतिरेकज्ञान । पर्यायें प्रतिक्षण नष्ट होती हैं और द्रव्य अनादि-अनन्त होता है । एक होकर भी द्रव्यकी अनेकरूपता जब प्रतीतिसिद्ध है तब उसमें विरोध संशय आदि दूषणोंका कोई अवकाश नहीं है।
नित्यानित्यात्मक-यदि द्रव्यको सर्वथा नित्य माना जाता है तो उसमें किसी भी प्रकारके परिणमनकी सम्भावना नहीं होनेसे कोई अर्थक्रिया नहीं हो सकेगी और अर्थक्रियाशून्य होनेसे पुण्य-पाप बन्धमोक्ष और लेन-देन आदिकी समस्त व्यवस्थाएँ नष्ट हो जाँयगी । यदि पदार्थ एक जैसा कूटस्थनित्य रहता है तो जगतके प्रतिक्षणके परिवर्तन असम्भव हो जायँगे। यदि पदार्थको सर्वथा विनाशी माना जाता है तो पूर्वपर्यायका उत्तरपर्यायके साथ कोई वास्तविक सम्बन्ध न होनेके कारण लेनदेन बन्धमोक्ष स्मरण और प्रत्यभिज्ञान
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