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प्रस्तावना
करते । उनके मतमें कालकारकादि का भेद होनेपर भी अर्थ एकरूप बना रहता है; तब यह नय कहता है कि तुम्हारी यह मान्यता उचित नहीं है। एक ही देवदत्त कैसे विभिन्नलिंगक भिन्नसंख्याक भिन्नकालीन शब्दोंका वाच्य हो सकेगा ? अतः उसमें भिन्न शब्दोंकी वाच्य भूत पर्याय भिन्न-भिन्न स्वीकार करनी ही चाहिये अन्यथा लिंगव्यभिचार साधनव्यभिचार कालव्यभिचार आदि बने रहेंगे। व्यभिचारका यहाँ अर्थ है शब्दभेद होनेपर अर्थभेद नहीं मानना यानी एक ही अर्थका विभिन्न शब्दोंसे अनुचित सम्बन्ध रखना । अनुचित इसलिये कि हर शब्दकी वाचकशक्ति जुदा-जुदा होती है । यदि तदनुकूल पदार्थमें वाच्यशक्ति नहीं मानी जाती है तो अनौचित्य तो स्पष्ट ही है, उनका मेल कैसे बैठ सकता है ?
_ काल स्वयं परिणमन करनेवाले वर्तनाशील पदार्थोंके परिणमनमें साधारण निमित्त होता है। इसके भूत भविष्यत् और वर्तमान ये तीन भेद हैं। केवल द्रव्य केवल शक्ति तथा अनपेक्ष द्रव्य और शक्तिको कारक नहीं कहते; किन्तु शक्तिविशिष्ट द्रव्यको कारक कहते हैं। लिंग चिह्नको कहते हैं। जो गर्भधारण करे वह स्त्री, जो पुत्रादिकी उत्पादक सामर्थ्य रखे वह पुरुष और जिसमें दोनों ही सामर्थ्य न हों वह नपुंसक कहलाता है । कालादिके ये लक्षण अनेकान्तात्मक अर्थमें ही बन सकते हैं। एक ही वस्तु विभिन्न सामग्रीके मिलनेपर षटकारकी रूपसे परिणति कर सकती है। कालादिके भेदसे एक ही द्रव्यकी नाना पर्यायें हो सकती हैं। सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य वस्तुमें ऐसे परिणमनकी संभावना नहीं है क्योंकि सर्वथा नित्यमें उत्पाद और व्यय तथा सर्वथा क्षणिकमें स्थैर्य नहीं है । इस तरह कारक व्यवस्था न होनेसे विभिन्न कारकोंमें निष्पन्न षटकारकी, स्त्रीलिंगादि लिंग और वचनभेद आदिकी व्यवस्था एकान्त पक्षमें संभव नहीं है।
___ यह शब्दनय वैयाकरणोंको शब्दार्थकी सिद्धिका दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है और बताता है कि सिद्धि अनेकान्तसे हो सकती है। जबतक वस्तुको अनेकान्तात्मक नहीं मानोगे तबतक एक ही वर्तमान पर्यायमें विभिन्नलिंगक विभिन्नसंख्याक शब्दोंका प्रयोग नहीं कर सकोगे, अन्यथा व्यभिचार दोष होगा । अतः उस एक पर्यायमें भी धर्मभेद मानना ही होगा। जो वैयाकरण ऐसा नहीं मानते उनका शब्दभेद होनेपर भी अर्थभेद न मानना शब्दनयाभास है। उनके मतमें उपसर्गभेद, उत्तमपुरुषकी जगह मध्यमपुरुष आदि पुरुषभेद, भावि और वर्तमानका एक व्यक्तिसे सम्बन्ध आदि समस्त व्याकरणकी प्रक्रियाएँ निराधार
और निर्विषयक हो जायगी। इसीलिये जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता आचार्यवर्य पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र व्याकरणका प्रारंभ "सिद्धिरनेकान्तात्" सूत्रसे और आचार्य हेमचन्द्रने हैमशब्दानुशासनका प्रारंभ "सिद्धिः स्याद्वादात्" सूत्रसे किया है । अतः अन्य वैयाकरणोंका प्रचलित क्रम शब्दनयाभास है।
समभिरूढ-तदाभास-एककालवाचक एकलिंगक तथा एकसंख्याक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं । समभिरूढ नय उन प्रत्येक पयर्यावाची शब्दोंका अर्थभेद मानता है । इस नयके अभिप्रायसे एकलिंगवाले इन्द्र शक्र और पुरन्दर इन तीन शब्दोंमें प्रवृत्तिनिमित्तकी भिन्नता होनेसे भिन्नार्थवाचकता है । शक शब्द शासन क्रियाकी अपेक्षासे, इन्द्र शब्द इन्दन-ऐश्वर्य क्रियाकी अपेक्षा से और पुरन्दर शब्द पूरण क्रियाकी अपेक्षासे प्रवृत्त हआ है। अतः तीनों शब्द विभिन्न अवस्थाओंके वाचक हैं। शब्दनयमें एकलिंगवाले पर्यायवाची शब्दोंमें अर्थभेद नहीं था पर समभिरूढ नय प्रवृत्तिनिमित्तोंकी विभिन्नता होनेसे पर्यायवाची शब्दोंमें भी भेद मानता है। यह नय उन कोशकारोंको दार्शनिक आधार प्रस्तुत करता है जिनने एक ही राजा या पृथ्वीके अनेक नाम-पर्यायवाची शब्द तो प्रस्तुत कर दिये थे पर उस पदार्थमें उन पर्याय शब्दोंकी वाच्यशक्ति जुदा-जुदा स्वीकार नहीं की थी। जिस प्रकार एक अर्थ अनेक शब्दोंका वाच्य नहीं हो सकता उसी प्रकार एक शब्द अनेक अर्थीका वाचक भी नहीं हो सकता। एक गोशब्दके ग्यारह अर्थ नहीं हो सकते; उस शब्दमें ग्यारह प्रकारकी वाचकशक्ति मानना ही होगी अन्यथा यदि वह जिस शक्तिसे पृथ्वीका वाचक है उसी शक्तिसे गायका भी वाचक हो तो एकशक्तिक शब्दसे वाच्य होनेके कारण पृथिवी और गाय दोनों एक हो जायेंगे। अतः शब्दमें वाच्यभेदके हिसाबसे वाचकशक्तियोंकी तरह पदार्थमें भी वाचकभेदकी अपेक्षा वाच्यशक्तियाँ माननी चाहिये । प्रत्येक शब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त और प्रवृत्तिनिमित्त जुदे-जुदे होते हैं, उनके
(१) "अभिरूढस्तु पर्यायैः"-लघी० श्लो० ४ । सिद्धिवि० ११॥३१ । अकलङ्क प्र० टि० पृ.१४७ ।
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