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विषयपरिचय : नयमीमांसा
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व्यवहाग्नयका उदाहरण माना गया है। पंचाध्यायीकार किसी दूसरे द्रव्यके गुणको दूसरे द्रव्यमें आरोप करना नयाभास मानते हैं जैसे वर्णादिको जीवके कहना, शरीरको जीवका कहना, मूर्त कर्म द्रव्योंका कर्त्ता भोक्ता जीवको मानना, धनधान्य स्त्री आदिका भोक्ता और कर्त्ता जीवको मानना, ज्ञान और ज्ञेयमें बोध्यबोधक सम्बन्ध होनेसे ज्ञानको ज्ञेयगत मानना आदि । ये सब नयाभास हैं ।
समयसारकी दृष्टि
समयसार में तो एक शुद्धद्रव्यको निश्चयनयका विषय मानकर बाकी परनिमित्तक स्वभाव या परभाव सभीको व्यवहारके गड्ढेमें डालकर उन्हें हेय अत एव अभूतार्थ कह दिया है । यहाँ एक बात ध्यानमें रखनेकी है कि नैगमादिनयों का विवेचन वस्तुस्वरूपकी मीमांसा करनेकी दृष्टिसे है जबकि समयसारगत नयोंका वर्णन 'अध्यात्म भावनाको परिपुष्ट कर हेय और उपादेयके विचारसे मोक्षमार्ग में लगानेके लक्ष्यसे है ।
निश्चय और व्यवहारके विचार में सबसे बड़ा खतरा है - निश्चयको भूतार्थ और व्यवहारको अभूतार्थ कहने की दृष्टि को न समझकर निश्चयकी तरफ झुक जाने और व्यवहारकी उपेक्षा करने का । दूसरा खतरा है किसी परिभाषाको निश्चयसे और किसीको व्यवहारसे लगाकर घोलघाल करनेका । आ० अमृतचन्द्र ने इन्हीं खतरों से सावधान करनेके लिये एक प्राचीन गाथा उद्धृत' की है
"जर जिणमयं पवजह तो मा ववहारणिच्छए मुयह । एकेण विणा छिजर तित्थं अण्णेण उण तच्चं ॥ "
अर्थात् यदि जनमतको प्राप्त हो रहे हो तो व्यवहार और निश्चयमें मोहको प्राप्त नहीं होना, किसी एकको छोड़ मत बैठना । व्यवहारके बिना तीर्थका उच्छेद हो जायगा और निश्चयके बिना तत्त्वका उच्छेद होगा ।
कुछ विशेष अध्यात्मप्रेमी जैनशासनकी सर्व नयसंतुलन पद्धतिको ध्यानमें न रखकर कुछ इसी प्रकारका घोलघाल कर रहे हैं । एक परिभाषा एक नयकी तथा दूसरी परिभाषा दूसरे नयकी लेकर ऐसा मार्ग बना रहे हैं जो न तो तत्त्वके निश्चयमें सहायक होता है और न तीर्थकी रक्षाका साधन ही सिद्ध हो रहा है । उदाहरणार्थ - निमित्त और उपादानकी व्याख्याको ही ले लें ।
निश्चयन की दृष्टि से एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका कुछ नहीं करता। जो जिस रूपसे परिणत होता है वह उसका कर्ता होता है । इसकी दृष्टिसे कुम्हार घड़ेका कर्ता नहीं होता किन्तु मृत्पिण्ड ही वस्तुतः घटका कर्ता है; क्योंकि वही घटरूपसे परिणत होता है । इसकी दृष्टि में निमित्तका कोई महत्त्वका स्थान नहीं है क्योंकि यह नय पराश्रित व्यवहार को स्वीकार ही नहीं करता । व्यवहारनय परसापेक्षता पर भी ध्यान रखता है । वह कुम्हारको घटक कर्ता इस लिये कहता है कि उसके व्यापार से मृत्पिण्ड में से वह आकार निकला है । घटमें मिट्टी ही उपादान है इसको व्यवहारनय मानता है । किन्तु 'कुम्भकार' व्यवहार वह 'मृत्पिण्ड' में नहीं करके कुम्हार करता है । 'घट' नामक कार्यकी उत्पत्ति मृत्पिण्ड और कुम्भकार दोनों के सन्निधानसे हुई यह प्रत्यक्षसिद्ध घटना है । किन्तु दोनों नयोंके देखनेके दृष्टिकोण जुदे-जुदे हैं । अब अध्यात्मी व्यक्ति कर्तृत्वकी परिभाषा तो निश्चयन की पकड़ते हैं और कहते हैं कि हरएक कार्य अपने उपादानसे उत्पन्न होता है, अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यमें कुछ नहीं कर सकता । जिस समय जो योग्यता होगी उस समय वह कार्य अपनी योग्यतासे हो जायगा । और इस प्रतिसमयकी योग्यताकी सिद्धिके लिये सर्वज्ञताकी व्यावहारिक परिभाषाकी शरण लेते हैं । यह सही है कि समन्तभद्र आदि आचार्योंने और इसके पहिले भी भूतबलि आचार्यने इसी व्यावहारिक सर्वज्ञताका प्रतिपादन किया है और स्वयं कुन्दकुन्दने भी प्रवचनसार में व्यावहारिक सर्वज्ञताका वर्णन किया है किन्तु यदि हम समन्तभद्र आदि की व्यावहारिक सर्वज्ञताकी परिभाषा लेते हैं तो कार्योत्पत्तिकी प्रक्रिया भी उन्हीं के द्वारा प्रतिपादित बाह्य और अन्तरंग उभयविध कारणोंसे माननी चाहिए | और यदि हम कार्योत्पत्तिकी प्रक्रिया कुन्दकुन्दकी नैश्चयिक दृष्टिसे लेते हैं तो सर्वज्ञताकी परिभाषा
(१) समयप्रा० आत्म० गा० १४ ।
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