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वाच्य अर्थ भिन्न-भिन्न हैं इस कालकारकादिवाचक शब्दभेदसे अर्थभेद ग्रहण करनेवाली दृष्टिका शब्दनयमें समावेश होता है । एक ही साधनमें निष्पन्न तथा एक कालवाचक भी अनेक पर्यायवाची शब्द होते हैं, इन पर्यायवाची शब्दों से भी अर्थभेद माननेवाली दृष्टि सम्मभिरूढमें स्थान पाती है । एवम्भूतनय कहता है कि जिस समय जो अर्थ जिस क्रियामें परिणत हो उसी समय उसमें तत्क्रियासे निष्पन्न शब्दका प्रयोग होना चाहिये। इसकी दृष्टि से सभी शब्द क्रियासे निष्पन्न हैं । गुणवाचक शुक्ल शब्द शुचिभवन रूप क्रिया से, जातिवाचक अश्वशब्द आशुगमन रूप क्रियासे, क्रियावाचक 'चलति' शब्द चलने रूप क्रिया से और नामवाचक. यदृच्छा शब्द देवदत्त आदि भी 'देवने इसको दिया' आदि क्रियाओंसे निष्पन्न होते हैं । इस तरह ज्ञान अर्थ और शब्दाश्रयी यावद् व्यवहारों का समन्वय इन नयों में किया गया है ।
मूलनय सात-नयों के मूलभेद सात हैं- नैगम संग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्द समभिरूढ़ और एवंभूत | आचार्य सिद्ध सेन ( सन्मति ० ११४ / ५) अभेदग्राही नैगमका संग्रहमें तथा भेदग्राही नैगमका व्यवहार नयमें अन्तर्भाव करके नयोंके छह भेद ही मानते हैं । तत्त्वार्थभाष्य (१।३४, ३५ ) में नयोंके मूल भेद पाँच मानकर शब्दनयके तीन भेद करके नयोंके सात भेद गिनाये हैं । नैगमनयके देशपरिक्षेपी और सर्व परिक्षेपी भेद भी तत्त्वार्थभाष्य (११३४, ३५) में पाये जाते हैं । षट्खंडागममें नैगमादि शब्दान्त पाँच भेद नयोंके गिनाये हैं, पर कषायपाहुडमें मूल पाँच भेद गिनाकर शब्दनयके तीन भेद कर दिये हैं और नैगमनय के संग्रहिक और असंग्रहिक दो भेद भी किये हैं । इस तरह सात नय मानना प्रायः सर्वसम्मत है ।
नैगमनय - संकल्पमात्रको ग्रहण करनेवाला नैगमनय' होता है । जैसे कोई पुरुष दरवाजा बनाने के लिये लकड़ी लाने जा रहा है । पूँछनेपर वह कहता है कि दरवाजा लेने जा रहा हूँ। तो यहाँ दरवाजेके संकल्पमें ही दरवाजा व्यवहार किया गया है । संकल्प सत् में भी होता और असत् में भी । इसी नैगमनयकी मर्यादामें अनेकों औपचारिक व्यवहार आते हैं 'आज महावीर जयन्ती है' इत्यादि व्यवहार इसी नयकी दृष्टि किये जाते हैं। निगम गाँवको कहते हैं, अतः गाँवों में जिस प्रकारके ग्रामीण व्यवहार चलते हैं वे सब इसी नयकी दृष्टिसे होते हैं ।
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कलंकदेव धर्म और धर्मी दोनों को गौण मुख्य भावसे ग्रहण करना नैगमनयका कार्य बताया है । जैसे 'जीव' कहनेसे ज्ञानादि गुण गौण होकर द्रव्य ही मुख्य विवक्षित होता है और 'ज्ञानवान् जीव' कहने से केवल धर्मको ही ग्रहण करता है और न केवल
ज्ञानगुण मुख्य हो जाता है और जीवद्रव्य गौण । यह न धर्मको ही । विवक्षानुसार दोनों ही इसके विषय होते हैं । भेद और अभेद दोनों ही इसके कार्यक्षेत्रमें आते हैं। दो धर्मों में दो धर्मियों में तथा धर्म और धर्म में एक को प्रधान तथा अन्यको गौण करके ग्रहण करना नैगमनका ही कार्य है, जबकि संग्रहनय केवल अभेदको विषय करता है और व्यवहार नय मात्र भेदको । यह किसी एकपर नियत नहीं रहता अतः ( नैकं गमः" ) इसे नैगम कहते हैं । कार्यकारण आधार आधेय आदिकी दृष्टि से होनेवाले सभी प्रकार के उपचारों को भी यही विषय करता है ।
प्रस्तावना
गमाभास - अवयव अवयवी, गुण-गुणी, क्रिया- क्रियावान् सामान्य और सामान्यवान् आदि में सर्वथा भेद मानना नैगमाभास' है; क्योंकि गुणीसे पृथक् गुण अपनी सत्ता नहीं रखता और न गुणोंकी उपेक्षा करके गुणी ही अपना अस्तित्व रख सकता है । अतः इनमें कथञ्चित्तादात्म्य सम्बन्ध मानना ही उचित है । इसी तरह अवयव अवयवी, क्रिया- क्रियावान् तथा सामान्य विशेष में भी कथञ्चित्तादात्म्य ही सम्बन्ध है । यदि गुण आदि गुणी आदिसे सर्वथा भिन्न स्वतन्त्र पदार्थ हों तो उनमें नियत सम्बन्ध न होने के कारण गुण-गुणी भाव आदि नहीं बन सकेंगे । कथञ्चित्तादात्म्यका अर्थ है कि गुण आदि गुणी आदि रूप ही हैं, उनसे भिन्न नहीं हैं। जो स्वयं ज्ञानरूप नहीं हैं वह ज्ञानके समवायसे भी कैसे 'ज्ञ' बन सकता है ? अतः वैशेषिकका गुण आदिका गुणी आदिसे निरपेक्ष सर्वथा भेद मानना नैगमाभास' है ।
(१) “अनभिनिर्वृत्तार्थ संकल्पमात्रग्राही नैगमः " - सर्वार्थसि० १।३३ ।
घी० स्व० श्लो० ३९ । धवला ट्री० सत्प्ररू० /
(३) त० श्लो० पृ० २६९ ॥ (५) लघी० स्व० श्लो० ३९ ।
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(६) सिद्धिवि० १० । ११ ।
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