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प्रस्तावना
अंग नहीं है, उनका कथन असाधनांग है । इसी तरह उन्होंने अदोषोद्भावनके भी विविध व्याख्यान किये हैं। यानी कुछ कम बोलना या अधिक बोलना, इनकी दृष्टिमें अपराध है । यह सब लिखकर भी अन्तमें उनने सूचित किया है कि स्वपक्षसिद्धि और परपक्ष निराकरण ही जय-पराजयकी व्यवस्थाके आधार होना चाहिये।
'आचार्य अकलङ्कदेव असाधनांगवचन तथा अदोषोद्भावनके झगड़ेको भी पसन्द नहीं करते हैं । त्रिरूपको साधनांग माना जाय, पंचरूपको नहीं, किसको दोष माना जाय किसको नहीं, यह निर्णय स्वयं एक शास्त्रार्थका विषय हो जाता है। शास्त्रार्थ तो बौद्ध नैयायिक और जैनों के बीच भी चलते हैं जो क्रमशः त्रिरूपवादी पंचरूपवादी और एकरूपवादी हैं, तब हर एक दूसरेकी अपेक्षा असाधनांगवादी हो जाता है । ऐसी अवस्थामें शास्त्रार्थके नियम स्वयं ही शास्त्रार्थक विषय बन जाते हैं। अतः उन्होंने बताया कि वादीका काम है कि वह अविनाभावी साधनसे स्वपक्षकी सिद्धि करे और परपक्षका निराकरण करे । प्रतिवादीका कार्य है कि वह वादीके स्थापित पक्षमें यथार्थ दुषण दे और अपने पक्षकी सिद्धि भी करे । इस तरह स्वपक्षसिद्धि और परपक्षका निराकरण ही बिना किसी लागलपेटके जय-पराजयके आधार होने चाहिये, इसीमें सत्य, अहिंसा और न्यायकी सुरक्षा है। स्वपक्षसिद्धि करनेवाला यदि कुछ अधिक भी बोल जाय तो भी कोई हानि नहीं है। 'स्वपक्षं प्रसाध्य नृत्यतोऽपि दोषाऽभावात्' अर्थात् अपने पक्षको सिद्ध करके यदि नाचता भी है तो भी कोई दोष नहीं है।
प्रतिवादी यदि सीधे 'विरुद्ध हेत्वाभासका उद्भावन करता है तो उसे स्वतन्त्ररूपसे पक्षसिद्धि करना आवश्यक नहीं है। क्योंकि वादीके हेतुको विरुद्ध कहनेसे प्रतिवादीका पक्ष स्वतः सिद्ध हो जाता है। हाँ असिद्धादि हेत्वाभासोंके उद्भावन करनेपर प्रतिवादीको अपने पक्षकी सिद्धि करना भी अनिवार्य है। स्वपक्षसिद्धि नहीं करनेवाला शास्त्रार्थके नियमोंके अनुसार चलनेपर भी किसी भी हालतमें जयका भागी नहीं हो सकता।
इसका निष्कर्ष यह है कि नैयायिकके मतसे छल आदिका प्रयोग करके अपने पक्षकी सिद्धि किये बिना ही सच्चे साधन बोलनेवाले भी वादीको प्रतिवादी जीत सकता है। बौद्ध परम्परामें छलादिका प्रयोग वर्ण्य है फिर भी यदि वादी असाधनांगवचन और प्रतिवादी अदोषोभावन करता है तो उनका पराजय होता है। वादीको असाधनांग वचनसे पराजय तब होगा जब प्रतिवादी यह बता दे कि वादीने असाधनांग वचन किया है । इस असाधनांगमें जिस विषयको लेकर शास्त्रार्थ चला है, उससे असम्बद्ध बातोंका कथन नाटक आदिकी घोषणा आदि भी ले लिये गये हैं । एक स्थल ऐसा आ सकता है, जहाँ दुष्ट साधन बोलकर भी वादी पराजित नहीं होगा । जैसे वादीने दुष्ट साधनका प्रयोग किया। प्रतिवादीने यथार्थ दोषका उदभावन न करके अन्य दोषाभासोंका उदभावन किया, फिर वादीने प्रतिवादीके द्वारा दिये गये दोषाभासोंका परिहार कर दिया । ऐसी अवस्थामें प्रतिवादी दोषाभासका उद्भावन करनेके कारण पराजित हो जायगा। वादीको जय तो नहीं मिलेगा किन्तु वह पराजित भी नहीं माना जायगा । इसी तरह एक स्थल ऐसा है जहाँ वादी निर्दोष साधन बोलता है, प्रतिवादी अंट-संट दूषणोंको कहकर दूषणाभासका उद्भावन करता है। वादी प्रतिवादीकी दृषणाभासता नहीं बताता। ऐसी दशामें किसीकी जय या पराजय न होगी। प्रथम स्थलमें अकलङ्कदेव स्वपक्षसिद्धि और परपक्षनिराकरणमूलक जय और पराजयकी व्यवस्थाके आधारसे यह कहते हैं कि यदि प्रतिवादीको दूषणाभास कहने के कारण पराजय मिलती है तो वादीकी भी साधनाभास कहनेके कारण पराजय होनी चाहिए; क्योंकि यहाँ वादी स्वपक्षसिद्धि नहीं कर सका है। अकलङ्कदेवके मतसे: एकका स्वपक्ष सिद्ध करना ही दूसरेके पक्षकी असिद्धि है। अतः जयका मूल आधार स्वपश्चसिद्धि है और पराजयका मूल कारण पक्षका निराकृत होना है । तात्पर्य यह कि जब एकके जयमें दूसरेका पराजय
(१) "तदुक्तम्-स्वपक्षसिद्धिरेकस्य निग्रहोऽन्यस्य वादिनः । '. नासाधनाङ्गवचनं नादोषोद्भावनं द्वयोः ॥"-अष्टसह. पृ०८७ । सिद्धिवि० ५।१०। (२) अकलङ्कोऽप्यभ्यधात्-विरुद्धं हेतुमुद्भाव्य वादिनं जयतीतरः ।
आभासान्तरमुद्भाब्य पक्षसिद्धिमपेक्षते ॥"-त. श्लो० ३८० । रत्नाकरावता० पृ. ११४१ ।
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