________________
विषयपरिचय: अनुमान प्रमाणमीमांसा
१२३
देगा और उभयपक्षवेदी सभ्यों के बिना स्वमतोन्मत्त वादी और प्रतिवादियोंको सभापति के अनुशासन में रखने का कार्य कौन करेगा ? अतः वाद चतुरंग होता है ।
जयपराजय व्यवस्था
नैयायिकोंने जब जल्पे और वितण्डामें छल जाति और निग्रहस्थानका प्रयोग स्वीकार कर लिया तब उन्हींके आधारपर जय-पराजयकी व्यवस्था बनी । उन्होंने प्रतिज्ञाहानि आदि बाईस निग्रहस्थान माने हैं । सामान्य से 'विप्रतिपत्ति-विरुद्ध या असम्बद्ध कहना और अप्रतिपत्ति-पक्ष स्थापन नहीं करना, प्रतिवादीके द्वारा स्थापितका प्रतिषेध नहीं करना तथा प्रतिषिद्ध स्वपक्षका उद्धार नहीं करना ये दो ही निग्रह स्थान' - 'पराजय स्थान' होते हैं । इन्हींके विशेष भेद प्रतिज्ञाहानि आदि बाईस ' हैं, जिनमें बताया है कि यदि कोई वादी अपनी प्रतिज्ञाकी हानि कर दे, दूसरा हेतु बोल दे, असम्बद्ध पद वाक्य या वर्ण बोले, इस तरह बोले जिससे तीन बार कहनेपर भी प्रतिवादी और परिषद् न समझ सके, हेतु दृष्टान्त आदिका क्रमभंग हो जाय, अवयव न्यून या अधिक कहे जायँ, पुनरुक्ति हो, प्रतिवादी वादीके द्वारा कहे गये पक्षका अनुवाद न सके, उत्तर न दे सके, दूषणको अर्धस्वीकार करके खण्डन करे, निग्रहयोग्य के लिए निग्रहस्थानका उद्भावन न कर सके, जो निग्रहयोग्य नहीं हैं उसे निग्रहस्थान बतावे, सिद्धान्तविरुद्ध बोले, हेत्वाभासोंका प्रयोग करे तो निग्रहस्थान अर्थात् पराजय होगा । ये शास्त्रार्थके कानून हैं, जिनका थोड़ा-सा भी भंग होनेपर सत्यसाधनवादीके हाथमें भी पराजय आ सकता है और दुष्ट साधनवादी इन अनुशासन के नियमोंको पालकर जयलाभ भी कर सकता है। तात्पर्य यह है कि शास्त्रार्थ के नियमोंका बारीकी से पालन करने और न करनेका प्रदर्शन ही जय-पराजयका आधार हुआ; स्वपक्ष सिद्धि या परपक्षदूषण जैसे मौलिक कर्त्तव्य नहीं । इसमें इस बातका ध्यान रखा गया है कि पञ्चावयववाले अनुमान प्रयोग में कुछ न्यूनता अधिकता और क्रमभंग यदि होता है तो उसे पराजयका कारण होना चाहिए ।
धर्मकीर्ति आचार्यने इन छल जाति और निग्रहस्थानोंके आधारसे होनेवाली जयपराजय व्यवस्थाका खण्डन करते हुए लिखा है कि- जयपराजयकी व्यवस्थाको इस प्रकार घुटालेमें नहीं रखा जा सकता । किसी भी सच्चे साधनवादीका मात्र इसलिए निग्रह होना कि वह कुछ अधिक बोल गया या कम बोल गया या उसने अमुक कायदेका वाकायदा पालन नहीं किया, सत्य और अहिंसाकी दृष्टिसे उचित नहीं है । अतः वादी और प्रतिवादी के लिए क्रमशः असाधनांगवचन और अदोषोद्भावन ये दो ही निग्रहस्थान मानने चाहिये । वादीका कर्त्तव्य है कि वह निर्दोष और पूर्ण साधन बोले, और प्रतिवादीका कार्य है कि वह यथार्थ दोषोंका उद्भावन करे । यदि वादी सच्चा साधन नहीं बोलता या जो साधनके अंग नहीं हैं ऐसे वचन कहता है। यानी साधनांगका अवचन या असाधनांगका वचन करता है तो उसका असाधनांग वचन होनेसे पराजय होगा । इसी तरह प्रतिवादी यदि यथार्थ दोषोंका उद्भावन न कर सके या जो वस्तुतः दोष नहीं हैं उन्हें दोषकी जगह बोले तो दोषानुद्भावन और अदोषोद्भावन होनेसे उसका पराजय अवश्यम्भावी है।
I
इस तरह सामान्य लक्षण करनेपर भी धर्मकीर्ति फिर उसी घपले में पड़ गये हैं । उन्होंने ' असाधनांग वचन और अदोषोद्भावनके विविध व्याख्यान करके कहा है कि -अन्वय या व्यतिरेक किसी एक दृष्टान्तसे ही साध्य की सिद्धि जब सम्भव है तब दोनों दृष्टान्तोंका प्रयोग करना असाधनाङ्ग वचन होगा । त्रिरूप हेतुका वचन ही साधनांग है। उसका कथन न करना असाधनाङ्ग है । प्रतिज्ञा निगमन आदि साधनके
(१) "यथोक्तोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः । " - न्यायसू० १।२।२ । "विप्रतिपत्तिरप्रतिपत्तिश्च निग्रहस्थानम्” न्यायसू० १।२।१९ ।
न्यायसू० ५ | २|१ ।
(४) " असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः ।
निग्रहस्थानमन्यत्तु न युक्तमिति नेष्यते ॥” - वादन्याय पृ० १ ।
(५) देखो वादन्याय ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org