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विषयपरिचय : अनुमान-प्रमाणमीमांसा
१२१ अकिंचित्कर हेत्वाभासका निर्देश जैन दार्शनिकोंमें सर्वप्रथम अकलङ्कदेवने किया है, परन्तु उनका अभिप्राय इसे स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेके विषयमें सुदृढ़ नहीं मालूम होता। वे एक जगह लिखते है । कि सामान्यसे एक असिद्ध हेत्वाभास है। वही विरुद्ध, असिद्ध और संन्दिग्धके भेदसे अनेक प्रकारका होता है। ये विरुद्धादि अकिञ्चित्करके विस्तार हैं। फिर लिखते हैं कि अन्यथानुपपत्तिरहित जितने त्रिलक्षण हैं, उन्हें अकिञ्चित्कर कहना चाहिये । इससे मालम होता है कि वे सामान्यसे हेत्वाभासोंकी अकिञ्चित्कर या असिद्ध संज्ञा रखते हैं। इसके स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेका उनका प्रबल आग्रह नहीं है। यह है कि आचार्य माणिक्यनन्दीने अकिञ्चित्कर हेत्वाभासके लक्षण और भेद कर चुकने पर भी लिखा है कि इस अकिञ्चित्कर हेत्वाभासका विचार हेत्वाभासके लक्षणकालमें ही करना चाहिये । शास्त्रार्थके समय तो इसका कार्य पक्षदोषसे ही किया जा सकता है। - आचार्य विद्यानन्दने भी सामान्य रूपसे एक हेत्वाभास कहकर असिद्ध विरुद्ध और अनैकान्तिकको उसीका रूपान्तर माना है। उनने भी अकिञ्चित्कर हेत्वाभासके ऊपर भार नहीं दिया है। वादिदेवसूरि आदि भी हेत्वाभासके असिद्ध आदि तीन भेद ही मानते हैं।
कथा विचार
परार्थानुमानके प्रसंगमें कथाका अपना विशेष स्थान है। पक्ष और प्रतिपक्ष ग्रहणकर वादी और प्रतिवादीमें जो वचन व्यवहार स्वमतके स्थापन पर्यन्त चलता है उसे कथा कहते हैं । न्याय परम्परामें कथाके तीन भेद माने गये हैं-१ वाद २ जल्प और ३ वितण्डा | तत्त्वजिज्ञासुओंकी कथा या वीतराग कथाको वाद कहा जाता है । जय पराजयके इच्छुक विजिगीषुओंकी कथा जल्प और वितण्डा है । दोनों कथाओंमें पक्ष और प्रतिपक्षका परिग्रह आवश्यक है । वादमें स्वपक्षसाधन और परपक्षदूषण प्रमाण और तर्कके द्वारा किये जाते हैं। इसमें सिद्धान्तसे अविरुद्ध पञ्चावयव वाक्यका प्रयोग अनिवार्य होनेसे न्यून, अधिक, अपसिद्धान्त और पाँच हेत्वाभास इन आठ निग्रहस्थानोंका प्रयोग उचित मान पा है। अन्य छल जाति आदिका प्रयोग इस वाद कथामें वर्जित है। इसका उद्देश्य तत्त्वनिर्णय करना है । जल्प और वितण्डामें छल जाति और निग्रहस्थान जैसे असत् उपायोंका अवलम्बन लेना भी न्याय्य माना गया है। इनका उद्देश्य तत्त्वसंरक्षण करना है और तत्त्वकी संरक्षा किसी भी उपायसे करनेमें इन्हें आपत्ति नहीं है। न्यायसूत्र (४२५०) में स्पष्ट लिखा है कि जिस तरह अंकरकी रक्षाके लिए काँटोंकी बारी लगाई जाती है. उसी तरह तत्त्वसंरक्षणके लिए जल्प और वितण्डामें काँटेके समान छल जाति आदि असत् उपायोंका अवलम्बन लेना भी अनुचित नहीं है। जनता मूढ़ और गतानुगतिक होती है । वह दुष्टवादीके द्वारा ठगी जाकर कुमार्गमें न चली जाय इस मार्गसंरक्षणके उद्देश्यसे कारुणिक मुनिने छल आदि जैसे असत् उपायोंका भी उपदेश दिया है । वितण्डा कथामें वादी अपने पक्षके स्थापनकी चिन्ता न करके केवल प्रतिवादीके पक्षमें दूषण ही दूषण देकर उसका मुँह बन्द कर देता है, जबकि जल्प कथामें परपक्षखण्डनके साथ ही साथ स्वपक्ष स्थापन भी आवश्यक होता है। इस तरह स्वमत संरक्षणके उद्देश्यसे एक बार छल जाति जैसे असत् उपायोंके अवलम्बनकी छूट होनेपर तत्त्व निर्णय गौण हो गया है; और शास्त्रार्थके लिए ऐसी नवीन भाषाकी सृष्टि की गई जिसके शब्दजालमें प्रतिवादी इतना उलझ जाय कि वह अपना पक्ष सिद्ध ही न कर सके । इसी भूमिकापर केवल व्याप्ति और हेत्वाभास आदि अनुमानके अवयवोंपर सारे नव्य न्यायकी सृष्टि हुई । जिसका भीतरी उद्देश्य तत्त्वनिर्णयकी अपेक्षा तत्त्वसंरक्षण ही विशेष मालूम होता है। चरकके
(१) देखो-पृ० ११९ टि० ५। (२) पृ० ११९ टि. ६। (३) "लक्षण एवासौ दोषः व्युत्पन्नप्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात्"-परीक्षामुख ६।३९ । (४) न्यायसू० ११२।१। (५) न्यायसू० १।२।२-३ ।
“गतानुगतिको लोकः कुमार्ग तत्प्रतारितः। मागादिति छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः॥"-न्यायम० प्रमा० पृ०११। .
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