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प्रस्तावना .... १. असिद्ध-"सर्वथाऽत्ययात् । पक्षमें सर्वथा न पाये जानावाला, अथवा जिसका साध्यके साथ सर्वथा अविनाभाव न हो। न्यायसार (पृ. ८) आदिमें विशेष्यासिद्ध विशेषणासिद्ध आश्रयासिद्ध आश्रयैकदेशासिद्ध व्यर्थविशेष्यासिद्ध व्यर्थविशेषणासिद्ध व्यधिकरणासिद्ध और भागासिद्ध इन आठ भेदोंका वर्णन है। इनमें आदिके छह भेद तो उन-उन रूपसे सत्ताके अविद्यमान होनेके कारण स्वरूपासिद्धमें ही अन्तर्भूत हो जाते हैं । भागासिद्धमें यदि वह साध्यसे अविनाभावी है तो पक्षके जितने भागमें पाया जायगा उतनेमें ही साध्यकी सत्ता सिद्ध करेगा। जैसे-'शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रयत्नका अविनाभावी है' यह अविनाभावी होनेसे सच्चा हेतु है। वह जितने शब्दों में पाया जायगा उतनेमें अनित्यत्व सिद्ध कर देगा।
व्यधिकरणासिद्ध भी असिद्ध हेत्वाभासमें नहीं गिनाया जाना चाहिये; क्योंकि-'एक महूर्त बाद रोहिणीका उदय होगा क्योंकि इस समय कृत्तिकाका उदय है', 'ऊपर मेघवृष्टि हुई है, नीचे नदीपूरदेखा जाता है' इत्यादि हेतु भिन्नाधिकरण होकरके भी अविनाभावके कारण सच्चे हेतु हैं। गम्यगमक भावका आधार अविनाभाव है, न कि भिन्न अधिकरणता या अभिन्नाधिकरणता । 'अविद्यमानसत्ताक'का अर्थ-'पक्षमें सत्ताका न पाया जाना नहीं है, किन्तु साध्य दृष्टान्त या दोनोंके साथ जिसकी अविनाभावनी सत्ता न पाई जाय, उसे अविद्यमानसत्ताक कहते हैं-यह है।
इसी तरह सन्दिग्धविशेष्यासिद्ध आदि का सन्दिग्धासिद्धमें ही अन्तर्भाव कर लेना चाहिये। ये असिद्ध कुछ अन्यतरा-सिद्ध और कुछ उभ्यासिद्ध भी होते हैं । वादी जब तक प्रमाणके द्वारा अपने हेतुको प्रतिवादीके लिए सिद्ध नहीं कर देता, तबतक वह अन्यतरासिद्ध कहा जा सकता है।
२. विरुद्ध-"अन्यथाभावात्' (प्रमाणसं० श्लो० ४८) साध्याभावमें पाया जानेवाला । जैसे'सब क्षणिक हैं, सत् होनेसे' यहाँ सत्त्व हेतु सर्वथा क्षणिकत्वके विपक्ष कथञ्चित् क्षणिकत्वमें पाया जाता है।
न्यायसार' (पृ०८) में विद्यमान सपक्षवाले चार विरुद्ध तथा अविद्यमान सपक्षवाले चार विरुद्ध इस तरह जिन आठ विरुद्धोंका वर्णन है, वे सब विपक्षमें अविनाभाव पाये जानेके कारण ही विरुद्ध हैं। हेतुका सपक्षमें होना कोई आवश्यक नहीं है । अतः सपक्षसत्त्वके अभावको विरुद्धताका नियामक नहीं माना जा सकता, किन्तु विपक्षके साथ उसके अविनाभावका निश्चित होना ही विरुद्ध ताका आधार है।
दिङनाग आचार्यने विरुद्धाव्यभिचारी नामका भी एक हेत्वाभास माना है। परस्पर विरोधी दो हेतुओंका एक धर्मीमें प्रयोग होनेपर प्रथम हेतु विरुद्धाव्यभिचारी हो जाता है। यह संशयहेतु होने से हेत्वाभास है। धर्मकीर्तिने इसे हेत्वाभास नहीं माना है। वे लिखते हैं कि जिस हेतुका त्रैरूप्य प्रमाणसे प्रसिद्ध है, उसके विरोधी हेतुका अवसर ही नहीं है। अतः यह आगमाश्रित हेतुके विषयमें ही संभव हो सकता है। चूंकि शास्त्र अतीन्द्रिय पदार्थोंका प्रतिपादन करता है, अतः एक ही वस्तु परस्पर विरोधी रूपमें वर्णित हो सकती है । अकलंकदेवने इस हेत्वाभासका विरुद्ध में अन्तर्भाव किया है । जो हेतु विरुद्धका अव्यभिचारी-विपक्षमें भी रहनेवाला है, उसे विरुद्ध हेत्वाभासकी ही सीमा में आना चाहिए ।
३. अनैकान्तिक "व्यभिचारी विपक्षेऽपि" (प्रमाण सं० श्लो० ४९) विपक्षमें भी पाया जानेवाला । यह दो प्रकारका है-एक निश्चितानैकान्तिक और दूसरा सन्दिग्धानकान्तिक ।
न्यायसार (पृ० १०) आदिमें जिन पक्षत्रयव्यापक, सपक्षविपक्षैकदेशवृत्ति आदि आठ भेर्दोका वर्णन है, वे सब इसीमें अन्तर्भूत हैं | अकलंकदेवने इस हेत्वाभासके लिए संन्दिग्ध शब्दका प्रयोग किया है।
४. अकिञ्चित्कर'-सिद्ध साध्यमें या प्रत्यक्षादिबाधित साध्यमें प्रयुक्त होनेवाला हेतु अकिञ्चित्कर है। अन्यथानुपपत्तिसे रहित जितने त्रिलक्षण हेतु हैं, वे सब अकिञ्चित्कर हैं।
(१) प्रमाणसं० श्लो० ४८।।
(२) "ननु च आचार्येण विरुद्धाव्यभिचार्यपि संशयहेतुरुक्तः, स इह नोक्तः, अनुमानविषयेऽसंभवात्" -न्यायबि० ३।११२, ११३ ।
(१) "सिद्धेऽकिञ्चित्करोऽखिलः।"-प्रमाणसं० श्लो० ४९ । “सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः।"-परीक्षामुख ६३५। .
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