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विषयपरिचय : आगम-प्रमाणमीमांसा
शब्दोंकी प्रवृत्ति होती ही है। संकेत ग्रहणके बाद शब्दार्थका स्मरण करके व्यवहार किया जाता है । जिस प्रकार प्रत्यक्षबुद्धि अतीत अर्थको जानकर भी प्रमाण है, उसी तरह स्मृति भी प्रमाण ही है। न केवल प्रमाण ही किन्तु सविषयक भी है । जब अविसंवादप्रयुक्त प्रमाणता स्मृतिमें है तब शब्द सुनकर तद्वाच्य अर्थका स्मरण करके तथा अर्थको देखकर तदवाचक शब्दका स्मरण करके व्यवहार अच्छी तरह चलता है।
एक सामान्य-विशेषात्मक अर्थको विषय करनेपर भी इन्द्रियज्ञान स्पष्ट और शब्दज्ञान अस्पष्ट होता है जैसे कि एक ही वृक्षको विषय करनेवाले दूरवर्ती और समीपवर्ती पुरुषों के ज्ञान अस्पष्ट और स्पष्ट होते हैं ।
स्पष्टता और अस्पष्टता विषयभेदके कारण नहीं आती किन्तु आवरणकै क्षयोपशमसे आती है। फिर शब्दसे होनेवाले अर्थका बोध मानस है और इन्द्रियसे होनेवाला पदार्थका ज्ञान ऐन्द्रियक । जिस तरह अविनाभाव सम्बन्धसे अर्थका बोध करानेवाला अनुमान अस्पष्ट होकर भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण है, उसी तरह वाच्यवाचक सम्बन्धके बलपर अर्थबोध करानेवाला शब्दज्ञान भी अविसंवादी होनेसे प्रमाण ही होना चाहिये । हाँ जिस शब्दमें विसंवाद या संशयादि पाये जाँय वह अनुमानाभास और प्रत्यक्षाभासकी तरह शब्दाभास हो सकता है । पर इतने मात्रसे सभी शब्दज्ञानोंको अप्रमाणकोटिमें नहीं डाला जा सकता । कुछ शब्दोंको अर्थ व्यभिचारी देखकर सभी शब्दोंको अप्रमाण नहीं ठहराया जा सकता ।
यदि शब्द बाह्यार्थमें प्रमाण न हो तो क्षणिकत्व आदिके प्रतिपादक शब्द भी प्रमाण नहीं हो सकेंगे। और तब बौद्ध स्वयं अदृष्ट नदी देश पर्वतादिका अविसंवादी ज्ञान शब्दोंसे कैसे कर सकेंगे ? यदि हेतुवाद रूप (परार्थानुमान) शब्दके द्वारा अर्थका निश्चय न हो तो साधन और साधनाभासकी व्यवस्था कैसे होगी ? इसी तरह आप्तके वचनके द्वारा यदि अर्थबोध न हो तो आप्त और अनाप्तका भेद कैसे सिद्ध होगा ? यदि पुरुषों के अभिप्रायों में विचित्रता होनेके कारण सभी शब्द अर्थव्यभिचारी करार किये जाँय तो सुगतके सर्वशास्तृत्वमें कैसे विश्वास किया जा सकेगा ? यदि अर्थव्यभिचार होनेके कारण शब्द अर्थमें प्रमाण नहीं है तो अन्य शब्दकी विवक्षामें अन्य अर्थका प्रयोग देखा जानेसे विवक्षाव्यभिचार भी होता है, तो उसे विवक्षामें भी प्रमाण कैसे कहा जा सकता है ? जिस तरह सुविवेचित व्याप्य और कार्य अपने व्यापक और कारणका उल्लंघन नहीं करते उसी तरह सुविवेचित शब्द भी अर्थ का व्यभिचारी नहीं हो सकता । फिर शब्दका विवक्षाके साथ कोई अविनाभाव भी नहीं है; क्योंकि शब्द वर्ण या पद कहीं अवांछित अर्थको भी कहते हैं और कहीं वांछितको भी नहीं कहते ।
यदि शब्द विवक्षामात्रके वाचक हों तो शब्दों में सत्यत्व और मिथ्यात्वकी व्यवस्था न हो सकेगी। क्योंकि दोनों ही प्रकारके शब्द अपनी-अपनी विवक्षाका अनुमान तो कराते ही हैं। शब्द में सत्य और असत्य व्यवस्थाका मूल आधार अर्थप्राप्ति और अप्राप्ति ही बन सकता है। जिस शब्दका अर्थ प्राप्त हो वह सत्य और जिसका अर्थ प्राप्त न हो वह मिथ्या होता है। जिन शब्दोंका बाह्य अर्थ प्राप्त नहीं होता उन्हें ही हम विसंवादी कहकर मिथ्या ठहराते हैं । प्रत्येक दर्शनकार अपने द्वारा प्रतिपादित शब्दोंका वस्तुसम्बन्ध ही तो बतानेका प्रयास करता है और वह उसकी काल्पनिकताका परिहार भी जोरोंसे करता है। अविसंवादका आधार अर्थप्राप्तिको छोड़कर दूसरा कोई बन ही नहीं सकता।
(१) देखो-सिद्धिवि० ९।२९ । न्यायकुमुदचन्द्र पृ० ५६५ । (२) सिद्धिवि० वि० ५।५ । लघी० श्लोक २७ । (३) लघी० श्लोक २६ ।। (४) सिद्धिवि० ५।५ । "आप्तोक्तेर्हेतुवादाच्च बहिराविनिश्चये ।
सत्यतरव्यवस्था का साधनेतरता कुतः ॥"-लघी. का० २८ । सिद्धिवि. ७।४ । लघी० श्लो० २९ । "वाक्यानामविशेषेण वक्त्रभिप्रेतवाचिनाम् । सत्यानृतव्यवस्था स्यात्तत्त्वमिथ्यादर्शनात् ॥"-सिद्धवि० ९।२८ । लघी० श्लो० ६४,६५ ।
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