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विषयपरिचय : प्रमेयमीमांसा
१३७ जीव उपयोगरूप है, अमूर्त है कर्त्ता और भोक्ता है, स्वदेहपरिमाण है, संसारी है और सिद्ध हो जाता है । वह स्वभावसे ऊर्ध्वगमनशील है ।
यह बताया जा चुका है कि चैतन्य ही जीवका स्वरूप है, वही चैतन्य ज्ञान और दर्शन अवस्थाओंमें परिणत होता है । न्यायवैशेषिक आत्मासे ज्ञानको भिन्न मानकर उसमें ज्ञानादिका समवाय मानते हैं जबकि जैन चैतन्यको स्वरूपभूत गुण ।
___ जीवको अमूर्त सभी जीववादी मानते हैं। पर जैन-परम्परा संसारी अवस्थामें सदा कपुद्गलोंसे बन्धन रहनेके कारण उसे व्यवहारदृष्टिसे मूर्त मान लेती है। सांख्यका आत्मा सदा कटस्थ नित्य है । नैयायिकके आत्मा तक किसी परिणमनकी पहुँच नहीं है, वह गुणोंतक ही सीमित है और गुण पृथक् पदार्थ हैं । बौद्धके यहाँ परिणमन है पर परिणमनोंका आधार कोई नहीं है जब कि जैन परिणमन भी मानता है
और उसका आधार भी । इसलिये संसारी अवस्थामें जब कि उसका वैभाविक-विकारी परिणमन होता है, आत्माको कथञ्चित् मूर्त भी माना गया है। उसे स्वयं कर्ता और भोक्ता भी माना है । सांख्यक मतमें कर्तृत्व प्रकृतिमें है और भोक्तृत्व आत्मामें है। यह भोक्तृत्व भी ऊपरी है । वह इतना ही है कि बुद्धिरूपी उभयदर्शी दर्पणमें चैतन्य भी प्रतिफलित होता है और विषय भी। दोनोंका बुद्धि-दर्पणमें एक साथ प्रतिफलित हो जाना ही भोग है । तात्पर्य यह कि सब कुछ परिणमन होता है प्रकृतिमें किन्तु पुरुषमें भोक्तृत्व मान लिया जाता है। बौद्धने कर्तृत्व और भोक्तृत्व एक ही चित्तधारामें घटाया है। जैनका आत्मा तो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक परिणमन करनेके कारण कर्तृत्व और भोक्तृत्व पर्यायसे स्वयं परिणत होता है । बँधता भी वही है और मुक्त भी वही होता है। अनादिकालसे वह मूर्त कर्मपुद्गलोंसे बद्ध ही चला आ रहा है। इसीलिये अनादि कालसे ही वह कथंचित् मूर्त है और कर्मानुसार प्राप्त छोटे-बड़े शरीरके अनुसार संकोच
और विकास करके उस शरीरके प्रमाण आकारवाला होता है । चूँकि स्वभावतः वह अमूर्त-द्रव्य है, पुद्गलसे जुदा है, और वासनाओंके कारण संसार अवस्थामें विकृत हो रहा है अतः सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र आदि प्रयत्नोंसे धीरे-धीरे शुद्ध होकर कर्म-बन्धनसे मुक्त सिद्ध हो जाता है, उस समय उसका आकार अन्तिम शरीर जैसा ही रह जाता है । कारण यह बताया गया है कि जीवके प्रदेशोंमें संकोच और विकास दोनों ही कर्म-सम्बन्धसे होते थे। जब कर्म-बन्धन छूट गया तब जीवके प्रदेशोंके फैलनेका भी कारण नहीं रह जाता, अतः वे अन्तिम शरीरसे कुछ न्यून आकारवाले रह जाते हैं।
आत्माके आकारके सम्बन्धमें उपनिषदोंमें अनेक मत हैं-उसे अणुपरिमाण',चावल या जवके दानोंके बराबर, अंगुष्ठप्रमाण और बिलस्तप्रमाण आदि रूपसे माना है। आत्माको देहपरिमाण माननेके विचार भी उपनिषदोंमें पाये जाते हैं। किन्तु अन्ततः उपनिषदोंका झुकाव उसे सर्वगत माननेकी ओर है। चार्वाकका देहको ही आत्मा मानने और जैनका देहपरिमाण आत्मा माननेमें मूलभूत भेद यही है कि जैन आत्माको स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं जब कि चर्वाकके यहाँ उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है।
व्यापक आत्मवादियों के मतसे मुक्त अवस्थामें आत्मा जहाँ-का-तहाँ जैसा-का-तैसा बना रहता है। व्यापक होनेके कारण उसका प्रकृति और मनसे संयोग भी बना रहता है। अन्तर इतना ही हो जाता है कि जो प्रकृति संसार अवस्थामें उसके प्रति प्रवृत्ताधिकार थी वह निवृत्ताधिकार हो जाती है। जो मन अपने संयोगसे संसारदशामें पुरुषमें बुद्धि सुख-दुःख आदि उत्पन्न करता था वह मोक्ष अवस्थामें उसके प्रति नपुंसक हो जाता है । तात्पर्य यह हुआ कि मुक्ति प्रकृति या मनकी हुई । आत्माने तो अपने नित्य सर्वगत स्वभावको न पहिले छोड़ा था और न अब नया प्राप्त ही किया है, वह तो जैसा-का-तैसा है।
बुद्धने निर्वाण अवस्थामें चित्तका क्या होता है इस विषयमें मौन रखा है, उसे अव्याकृत कहा है। किन्तु प्रदीप निर्वाणकी तरह आत्मनिर्वाणकी कल्पना यानी चित्तकै सर्वथा उच्छिन्न होनेकी बात पदार्थ
(१) मैत्र्यु०६।३८ । (२) बृहदा० ५।६।। (३) कठोप० २।२।१२। (४) छान्दो० ५।१८।१। (५) तैत्ति० ११२ । कौषतकी ४।२० ।
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