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विषयपरिचय: आगम-प्रमाणमीमांसा
१२७ आचार्य परम्परा है । इस व्याख्यासे आगम प्रमाण या 'श्रुत' वैदिक परम्पराके 'श्रुति' शब्दकी तरह अमुक ग्रन्थों तक ही सीमित रह जाता है ।
परन्तु परोक्ष आगम प्रमाणसे इतना ही अर्थ इष्ट नहीं है, किन्तु व्यवहारमें भी अविसंवादी और अवंचक आप्तके वचनोंको सुनकर जो अर्थबोध होता है, वह भी आगमकी मर्यादामें आता है | इसीलिए अकलङ्कदेवने' आप्तका व्यापक अर्थ किया है कि जो जिस विषयमें अविसंवादक है वह उस विषयमें आप्त है। आप्सताके लिए तद्विषयक बोध और उस विषयमें अविसंवादकता या अवंचकताका होना ही मुख्य शर्त है। इसलिए व्यवहारमें होनेवाले शब्दजन्य अर्थबोधको भी एक हद तक आगम प्रमाणमें स्थान मिल जाता है, जैसे कोई कलकत्तेका प्रत्यक्षद्रष्टा यात्री आकर कलकत्तेका वर्णन करे तो उन शब्दोंको सुनकर वक्ताको प्रमाण मानकर जो श्रोताको ज्ञान उत्पन्न होता है वह भी आगम प्रमाणमें शामिल है।
वैशेषिक और बौद्ध इस ज्ञानको भी अनुमान प्रमाणमें अन्तर्भूत करते हैं परन्तु शब्दश्रवण और संकेतस्मरण आदि सामग्रीसे लिङ्गदर्शन और व्याप्तिस्मरणके बिना ही होनेवाला यह ज्ञान अनुमानमें शामिल नहीं हो सकता । श्रुत या आगम ज्ञान केवल आप्तके शब्दोंसे ही उत्पन्न नहीं होता किन्तु हाथके इशारे आदि संकेतोंसे, ग्रंथकी लिपिंको पढ़ने आदिसे भी होता है। इसमें संकेत स्मरण ही मुख्य प्रयोजक है।
श्रतके तीन भेद-अकलंकदेवने प्रमाणसंग्रह में श्रुतके प्रत्यक्ष निमित्तक, अनुमान निमित्तक तथा आगम निमित्तक ये तीन भेद किये हैं। परोपदेशकी सहायता लेकर प्रत्यक्षसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत प्रत्यक्षपूर्वक श्रुत है, परोपदेश सहित लिंगसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत अनुमानपूर्वक श्रुत और केवल परोपदेशसे उत्पन्न होनेवाला श्रुत आगमनिमित्तक है । जैनतर्क वार्तिककार प्रत्यक्षपूर्वकश्रत नहीं मानकर परोपदेशज और लिङ्गनिमित्तक ये दो ही श्रुत मानते हैं।
तात्पर्य यह है कि जैन परम्पराने आगम प्रमाणमें मुख्यतया तीर्थङ्करके वाणीके आधारसे साक्षात् या परम्परा से निबद्ध ग्रन्थ विशेषोंको लेकर भी उसके व्यावहारिक पक्षको नहीं छोड़ा है। व्यावहारमें प्रमाणिक वक्ताके शब्दको सुनकर या हस्तसंकेत आदिको देखकर संकेत स्मरणसे जो भी ज्ञान उत्पन्न होता है, वह आगम प्रमाणमें शामिल है । आगमवाद और हेतुवादका क्षेत्र अपना अपना निश्चित है अर्थात् आगमके बहुतसे अंश ऐसे हो सकते हैं, जहाँ कोई हेतु या युक्ति नहीं चलती ऐसे विषयोंमें युक्तिसिद्ध वचनोंकी एक कर्तृकतासे अयुक्तिसिद्ध वचनोंको भी प्रमाण मान लिया जाता है। वेदापौरुषेयत्व विचार
मीमांसक पुरुषमें पूर्णज्ञान और वीतरागताका विकास नहीं मानता और धर्मप्रतिपादक वेद वाक्यको किसी पुरुष विशेषकी कृति न मानकर उसे अपोरुषेय या अकर्तृक मानता है। उस अपौरुषेयत्वकी सिद्धिके लिए अस्मर्यमाणकत्र्तकत्व हेतु दिया जाता है । इसका अर्थ है कि यदि वेदका कोई कर्त्ता होता तो उसका स्मरण होना चाहिये था, चूँकि स्मरण नहीं है, अतः वेद अनादि है और अपौरुषेय है। किन्तु कर्ताका स्मरण नहीं होना किसीकी अनादिताका प्रमाण नहीं हो सकता । नित्य वस्तु अकर्तृक ही होती है। कर्ता का स्मरण होने और न होनेसे अपौरुषेयता और पौरुषेयताका कोई सम्बन्ध नहीं है बहुतसे पुराने मकान कुएँ और खण्डहर आदि ऐसे उपलब्ध होते हैं जिनके कर्ता या बनानेवालोंका स्मरण नहीं है फिर भी वे अपौरुषेय नहीं हैं।
अपौरुषेय होना प्रमाणताका साधक भी नहीं है । बहुतसे लौकिक म्लेच्छादि व्यवहार गाली गलौज आदि ऐसे चले आते हैं जिनके कर्ताका कोई स्मरण नहीं है, पर इतने मात्रसे वे प्रमाण नहीं माने जा सकते
(१) “यो यत्राविसंवादकः स तत्राप्तः, परोऽनाप्तः । तत्त्वप्रतिपादनमविसंवादः तदर्थज्ञानात् ।" -अष्टश०, अष्टसह. पृ० २३६ ।
(२) "श्रुतमविप्लवं प्रत्यक्षानुमानागमनिमित्तम्"-प्रमाणसं० पृ० १। (३) जैनतर्कवार्तिक पृ०७४ ।
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