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विषयपरिचय प्रत्यक्ष-प्रमाणमीमांसा
१११ है और उसका समर्थन भी किया है । यद्यपि तर्क युग से पहले "जे एगे जाणइ से सव्वे जाणह" [आचा० सू० १२३] जो एकको जानता है, वह सबको जानता है, इत्यादि वाक्य जो सर्वज्ञताके मुख्य साधक नहीं हैं, पाये जाते हैं, पर तर्कयुगमें इनका जैसा चाहिये वैसा उपयोग नहीं हुआ । आचार्य कुन्दकुन्द'ने नियमसारके शुद्धोपयोगाधिकार (गाथा १५८) में लिखा है कि-'केवली भगवान् समस्त पदार्थोंको जानते और देखते हैं, यह कथन व्यवहार नयसे है परन्तु निश्चयसे वे अपने आत्मस्वरूपको ही देखते और जानते हैं।' इससे स्पष्ट फलित होता है कि केवलीकी परपदार्थज्ञता व्यावहारिक है, नैश्चयिक नहीं। व्यवहारनयको अभूतार्थ
और निश्चयनयको भूतार्थ-परमार्थ स्वीकार करनेकी मान्यतासे सर्वज्ञताका पर्यवसान अन्ततः आत्मज्ञतामे ही होता है । यद्यपि उन्हीं कुन्दकुन्दाचार्यके अन्य ग्रन्थों में सर्वज्ञताके ब्यावहारिक अर्थका भी वर्णन देखा जाता है, पर उनकी निश्चयदृष्टि आत्मज्ञताकी सीमाको नहीं लाँघती ।
___आ० कुन्दकुन्दने प्रवचनसार में सर्वप्रथम केवलज्ञानको त्रिकालवर्ती समस्त अर्थोंका जाननेवाला लिखकर आगे लिखा है कि जो अनन्तपर्यायवाले एक द्रव्यको नहीं जानता वह सबको कैसे जानता है ? और जो सबको नहीं जानता वह अनन्तपर्यायवाले एक द्रव्यको पूरी तरहसे कैसे जान सकता है ? इसका तात्पर्य यह है कि-जो मनुष्य घटज्ञानके द्वारा घटको जानता है वह साथ ही साथ घटज्ञानके स्वरूपका भी संवेदन कर ही लेता है, क्योंकि प्रत्येक ज्ञान स्वप्रकाशी होता है । इसी तरह जो व्यक्ति घटको जाननेकी शक्ति रखनेवाले घटज्ञानका यथावत् स्वरूपपरिच्छेद करता है वह घटको तो अर्थात् ही जान लेता है, क्योंकि उस शक्तिका यथावत् विश्लेषणपूर्वक परिज्ञान विशेषणभूत घटको जाने बिना हो ही नहीं सकता। इसी प्रकार आत्मामें अनन्त ज्ञेयोंके जाननेकी शक्ति है, अतः जो संसारके अनन्त ज्ञेयोंको जानता है वह अनन्तज्ञेयोंके जाननेकी शक्ति रखनेवाले पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माको जान ही लेता है, और जो अनन्तज्ञेयोंके जाननेकी शक्तिवाले पूर्णज्ञानस्वरूप आत्माको यथावत् विश्लेषण करके जानता है वह उन शक्तियों के उपयोगस्थानभूत अनन्त पदार्थोंको भी जान ही लेता है; क्योंकि अनन्तशेय तो उस ज्ञानके विशेषण हैं और विशेष्यका ज्ञान होनेपर विशेषणका ज्ञान अवश्य हो ही जाता है। जैसे जो व्यक्ति घटप्रतिबिम्बवाले दर्पणको जानता है वह घटको भी जानता है और जो घटको जानता है वही दर्पणमें आये हुए घटके प्रतिबिम्बका वास्तविक विश्लेषणपूर्वक यथावत् परिज्ञान कर सकता है। 'जो एकको जानता है वह सबको जानता है', इसका यही रहस्य है। निश्चयनय और सर्वज्ञता
निश्चयनयकी दृष्टिसे सर्वज्ञताका जो पर्यवसान आत्मज्ञतामें किया गया है उस सम्बन्धमें यह विचार भी आवश्यक है कि निश्चयनयका वर्णन स्वाश्रित होता है ।" दर्शनके वर्णनमें यह बताया जा चुका है कि चैतन्य जब तक निराकार यानी मात्र स्वाकार रहता है तब तक वह दर्शन है और जब वह साकार अर्थात्
(१) “से भगवं अरहं जिणे केवली सव्वन्नू सव्वभावदरिसी' 'सन्वलोए सव्वजीवाणं सव्वभावाई जाणमाणे पासमाणे एवं च णं विहरई"-आचा० २।३ पृ० ४३५ ।
(२) "जाणदि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवलीभगवं ।
केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ॥" (३) "जं तकालियमिदरं जाणदि जुगवं समतदो सव्वं ।
अत्थं विचित्तविसमं तं गाणं खाइयं भणियं ॥ जो ण विजाणदि जुगवं अत्थे तेकालिके तिहुवणत्थे। णादूं तस्स ण सक्कं सपजयं दव्वमेकं वा ॥ दब्वमणंतपजयमेकमणंताणि दव्वजादाणि ।
ण विजाणदि जदि जुगवं कध सो सब्वाणि जाणादि ॥"-प्रवचनसार ११४७-४९। (४) "स्वाश्रितो निश्चयः पराश्रितो व्यवहारः इति वचनात्"-नियमसार दी गा० १५८ ।
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