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विषयपरिचय : प्रत्यक्ष प्रमाणमीमांसा
गये । मूर्त द्रव्य जुदे तथा अमूर्त द्रव्य जुदे माने गये। पृथिवी आदिके अनन्त परमाणु स्वीकार किये गये। किन्तु ये इतने आत्यन्तिक भेद पर उतरे कि गुण क्रिया सम्बन्ध और सामान्य आदि परिणमनोंको भी स्वतन्त्र पदार्थ मानने लगे, यद्यपि गुण क्रिया सम्बन्ध और सामान्य आदिकी पृथक् उपलब्धि नहीं होती और न ये पृथसिद्ध ही हैं। नैयायिक वैशेषिकोंने परमाणओंके संयोगसे यणक आदि क्रमसे बननेवाले घट आदि कार्यों में एक 'अवयविद्रव्य' पृथक स्वीकार किया है, जो परमाणुरूप समवायिकारण तथा उनके संयोगरूप असमवायिकारण से उत्पन्न होता है । यही अवयविद्रव्य हम लोगोंके इन्द्रियज्ञानका विषय होता है। जब कभी घड़ेका एक अंश झर जाता या चटक जाता है तो शेष परमाणुओंमें फिर क्रिया होती है और उतने ही परमाणुओंसे फिर एक नया अवयविद्रव्य शेष अवयवोंमें रहनेवाला उपस्थित हो जाता है। इस तरह यह प्रक्रिया चालू रहती है। परमाणु द्रव्य नित्य हैं तथा उनके संयोग क्रिया और गुण आदि अनित्य हैं । अवयविद्रव्य अनित्य हैं और ये अपने अवयव रूपी कारणोंमें समवाय सम्बन्धसे रहते है ।
इस तरह ऊपरके विवेचन से यह ज्ञात हुआ कि-एक पक्षका कथन है कि ये घटादि स्थूलद्रव्य या सूक्ष्म परमाणुद्रव्य हैं ही नहीं, केवल प्रतिभास है; दूसरा पक्ष है कि-परमाणु तो हैं पर अवयवी प्रतिभासमात्र है; तो तीसरा पक्ष है कि-परमाणु भी हैं और अवयवी भी स्वतन्त्र द्रव्य हैं, उनका परस्पर समवायसम्बन्ध है।
जैनदर्शनकी अपनी प्रक्रिया यह है कि-पुद्गल परमाणु स्वतन्त्र द्रव्य हैं। प्रत्येक द्रव्य अपने निज स्वभावके कारण नवीन पर्यायका उत्पाद, पूर्व पर्यायका नाश और अविच्छिन्न सन्ततिरूप ध्रौव्यकी परम्परा को कायम रखे हुए हैं। जब कुछ परमाणुओंको मिलाकर एक पिण्ड या स्कन्ध बनाया जाता है या स्वयं बनता है, तो उसमें सम्मिलित परमाणु एक दूसरेसे सम्बद्ध हो जाते हैं और वे सब अपनी एक जैसी पर्यायोंके उत्पादक होने लगते हैं। यह उस सम्बन्धपर निर्भर करता है कि क्या वह सम्बन्ध रासायनिक है जैसे कि हल्दी और चूनेका, जिसमें दोनों अपने रूपको बदलकर तीसरा ही रूप ले लेते हैं; या मात्र संयोग है जैसे पाँच रंगके जुदेजुदे धागोंसे बनी हुई पचरंगी साड़ीमें धागोंका मात्र संयोग हुआ है, उनका हलदी और चूनेकी तरह रासायनिक मिश्रण नहीं हुआ है । सम्बन्धके असंख्य प्रकार हैं-कोई स्कन्धाकार परिणति कराता है, तो कोई दृढ़ कोई शिथिल कोई निबिड कोई सघन आदि होता है। बात यह है कि-सभी पुद्गल परमाणु मूलतः एकजातीय हैं । इनमें परस्पर कोई जातिभेद नहीं है । कोई ऐसा पुद्गलपरिणमन किन्हीं खास परमाणुओंका निश्चित नहीं है जो साक्षात् या परम्परासे दूसरे परमाणुओंका न हो सके। प्रत्येकमें पुद्गलके अनन्त परिणमनोंकी योग्यता है। यह तो परिस्थिति पर निर्भर करता है कि किन परमाणुओंका किस समय कैसा परिणमन हो । हर परमाणुको प्रतिसमय अपने उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य स्वभावके कारण बदलना अवश्य है । जब जिसे जहाँ जैसी सामग्री मिल जाती है वह वहाँ उसी प्रकार परिणति करता जाता है। उदाहरणार्थ आकाशमें एक ऑक्सीजनका परमाणु है और दूसरा हाइड्रोजनका । यदि किसी प्रयोग या संयोगवश दोनों एक दूसरे से मिल जाते हैं तो दोनोंका पानी रूपसे परिणमन हो जाता है, अन्यथा जैसे संयोग उपलब्ध होंगे उनके अनुसार ऑक्सीजनका ऑक्सीजन रह सकता है या अन्य कोई संभव अवस्थाको पा सकता है। तात्पर्य यह कि पुद्गलकी अचिन्त्य शक्तियाँ हैं, कब किस शक्तिका किस संयोगसे कैसा विकास होगा यह विवरणके साथ जानना शक्य नहीं है, तो भी सामान्य रूपसे उसकी परिणमन प्रक्रिया और दिशा तो ज्ञात है ही।
तो जब मिट्टीके पिंड के परमाणु एक दूसरेसे मिलकर पिंड बनते हैं और पिंड से घड़ा बनते हैं तो उनमें कोई पिंड नामक अवयवीद्रव्य ऊपरसे आकर नहीं बैठता किन्तु परस्पर विशिष्ट सम्बन्धके कारण सदृश अवस्थाको प्राप्त परमाणु ही पिंड बन जाते हैं। उस समय उनका व्यक्तित्व समूहमें विलीन हो जाता है और परस्पर सम्बन्धके अनुसार उनके रूप रस गन्ध आदिका लगभग समान परिणमन होता रहता है। जब कोई आम किसी खास स्थानपर सड़ने लगता है, तो उस संघटनमें सम्मिलित परमाणुओंके समुदायसे कुछ परमाणु विद्रोह कर बैठते हैं और अपनी जुदी अवस्थाके लिये तैयार हो जाते हैं। यह सडाँद उनके पृथक् परिणमनकी स्थिति है। यह ध्यानमें रखना चाहिए कि पुद्गलके अनन्त परिणमन होते हैं। अवस्था
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