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ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : समयनिर्णय आचार्य अनन्तकीर्तिने बृहत्सर्वज्ञसिद्धि और लघुसर्वज्ञसिद्धि में सर्वज्ञ सिद्ध करनेके लिये मुख्य हेतु यह दिया है
"सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित् प्रत्यक्षाः अनुपदेशालिङ्गानन्वयतिरेकपूर्वकाविसंवादिनष्टमुष्टिचिन्तालाभालाभसुखदुःखग्रहोपरागाद्युपदेशकरणान्यथानुपपत्तेः ।" यह हेतु तत्त्वार्थदलोकवार्तिक (पृ० ११) के इस श्लोकसे 'तुलनीय है
"सूक्ष्माद्यर्थोपदेशो हि तत्साक्षात्कर्तृपूर्वकः ।
परोपदेशालिङ्गाक्षानपेक्षाऽवितथत्वतः ॥" अनन्तकीर्तिने प्रमाणपञ्चकाभावलक्षण अभावको समुद्रकी जलसंख्यासे अनैकान्तिक बताते हुए लिखा है"प्रमाणपञ्चकाभावलक्षणोऽभावः समुद्रोदकपरिसंख्यानेन अनैकान्तिका"
___-लघुसर्वशसि० पृ० ११३ । यह अंश तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० १३) के निम्नलिखित श्लोक से अत्यधिक साम्य रखता है
"स्वसम्बन्धि यदीदं स्याद् व्यभिचारि पयोनिधेः।
अम्भःकुम्भादिसंख्यानैः सद्भिरशायमानकैः ॥" इसी तरह आप्तपरीक्षा (पृ० २२२) का सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण तथा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० ११-) का सर्वज्ञसिद्धि प्रकरण शैली और युक्तिपरम्परा आदिकी दृष्टि से अनन्तकीर्तिके प्रकरणोंसे तुलनीय है।
आचार्य विद्यानन्दके समयकी उत्तरावधि ई० ८४० बताई जा चुकी है। अतः अनन्तकीर्तिके समयकी पूर्वावधि भी यही माननी चाहिए । श्रीमान् पं० नाथूरामजी प्रेमी द्वारा सूचित समयावधिका इससे समर्थन हो जाता है।
जिस प्रकार ज्ञानश्री रत्नाकरशान्ति (ई० १० वी) आदिने क्षणभङ्गसिद्धि अवयविनिराकरण आदि लघु प्रकरण ग्रन्थ लिखे हैं उसी तरह आचार्य अनन्तकीर्तिने भी जीवसिद्धि लघुसर्वशसिद्धि और बृहत्सर्वशसिद्धि प्रकरण लिखे हैं।
अनन्तवीर्य प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयटीका (पृ० २३४) प्रामाण्यविचार प्रकरणमें आचार्य अनन्तकीर्तिके एक 'स्वतः प्रामाण्यभङ्ग' प्रकरणका उल्लेख इस प्रकार करते हैं
"शेषमुक्तवत् अनन्तकीर्तिकृतेः स्वतःप्रामाण्यभङ्गादवसेयमेतत् ।”
प्रस्तुत टीका (पृ०७०८) के सर्वशसिद्धिमें अनन्तवीर्य भी उसी "अनुपदेशालिङ्गाव्यभिचारिनष्टमुष्ट्याद्युपदेशान्यथानुषपत्तेः" हेतुका प्रयोग करते हैं जो कि अनन्तकीर्तिकी बृहत्सर्वशसिद्धि (पृ० १३०) और लघुसर्वसिद्धि (पृ०१०७)का मूल हेतु' है।
(१) बृहत्सर्वज्ञसि० पृ० १३०। लघुसर्वज्ञसि० पृ० १०७। (२) अष्टसह. पृ० ४७ ।
(३) यह हेतु वसुनन्दि की आप्तमीमांसा वृत्ति (पृ० ४) के इस अंशसे भी तुलनीय है-"तथाच स्वभावविप्रकृष्टा मन्त्रौषधिशक्तिचित्तादयः, कालविप्रकृष्टाः लाभसुखदुःखग्रहोपरागादयः, देशविकृष्टा मुष्टिस्थादिद्रव्यम् । दूरा हिमवन्मन्दरमकराकरादयः।" यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने की है कि अष्टसहस्री के अन्तमें (पृ० २९४) लिखे गये "अत्र शास्त्रापरिसमाप्तौ केचिदिदं मङ्गलवचनमनुमन्यन्ते 'जयति जगति केशावेश..." इस वाक्यसे ज्ञात होता है कि कोई आचार्य 'जयति जगति' इस श्लोकको शास्त्रपरिसमाप्ति सूचक मङ्गलवचन मानते हैं। इस 'जयति जगति' श्लोकको आप्तमीमांसा का मानकर वसुनन्दिने इसकी भी टीका बनाई है और इसकी उत्थानिकामें लिखा है कि-"कृतकृत्यो नियूंढप्रतिज्ञ आचार्यः श्रीमत्समन्तभद्रकेसरी"इदमाह । अर्थात् वसुनन्दिके मतसं यह श्लोक स्वामी समन्तभद्र का था और वह आप्तमीमांसा का अंग था। अतः विद्यानन्द का संकेत इन्हीं वसुनन्दिकी ओर है यह ज्ञात होता है।
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