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प्रस्तावना
ज्ञानका ग्राह्य कहा जाता है' । अनुमानमें ग्राह्य विषय तो सामान्यलक्षण है; क्योंकि अग्निसामान्य ही उसका विषय है फिर भी प्राप्त स्वलक्षण होता है, अतः प्राप्य स्वलक्षणकी अपेक्षा उसमें प्रामाण्य है । इसमें मणिप्रभा और प्रदीपप्रभामें होनेवाले मणिज्ञानका दृष्टान्त दिया जाता है । जैसे प्रदीपप्रभा में होनेवाला मणिज्ञान और मणिप्रभा में होनेवाला मणिज्ञान दोनों ही भ्रान्त हैं, किन्तु मणिप्रभामें होनेवाला मणिज्ञान मणिकी प्राप्ति करा देनेसे विशेषता रखता है उसी तरह अनुमान और मिथ्याज्ञान दोनों अवस्तुको विषय करनेकी दृष्टि समान हैं किन्तु अनुमानसे अर्थक्रिया हो जाती है अतः वह प्रमाण है, मिथ्याज्ञान नहीं । तात्पर्य यह कि परमार्थ स्वलक्षण ग्राह्य हो या नहीं, किन्तु यदि प्राप्ति स्वलक्षणकी हो जाती है तो वह ज्ञान अविसंवादी और प्रमाण माना जाता है ।
निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें दुहरी प्रमाणता है - वह परमार्थं स्वलक्षणको विषय भी करता है तथा उससे प्राप्ति भी स्वलक्षणकी ही होती है। अनुमानका ग्राह्य विषय यद्यपि कल्पित है पर प्राप्ति स्वलक्षणकी होती है। अतः वह प्रमाण है | अनुमानका ग्राह्य मिथ्या क्यों हैं ? इसका भी कारण यह है कि - यतः अनुमान एक विकल्प ज्ञान है । विकल्पमें शब्द संसर्ग या शब्द संसर्गकी योग्यता होती है । शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है और शब्द कल्पित सामान्यका ही वाचक होता है, अतः विकल्प अर्थका स्पर्श नहीं कर सकता । जो शब्द विद्यमान अर्थ में प्रयुक्त होते हैं वे ही अर्थके अभाव में भी प्रयुक्त होते हैं । अतः शब्दोंका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं है । 'अर्थ में शब्द नहीं है और न अर्थ शब्दात्मक ही है जिससे 1 अर्थके प्रतिभासित होनेपर वे अवश्य ही प्रतिभासित हों । इसीलिये परमार्थ स्वलक्षण से उत्पन्न होनेवाले निर्विकल्पक प्रत्यक्षमें शब्दसंसर्ग नहीं हो पाता । निर्विकल्पक विकल्प ज्ञानको उत्पन्न करता है । अतः जो विकल्प निर्विकल्पक प्रत्यक्षके अनन्तर उत्पन्न होता है यानी जिस विकल्प में निर्विकल्पकज्ञान समनन्तरप्रत्यय होता है वह विकल्पज्ञान निर्विकल्पकसे समुत्पन्न होनेके कारण व्यवहारसाधक होता है, पर जो विकल्पज्ञान केवल विकल्पवासना से बिना निर्विकल्पकका पृष्ठबल प्राप्त किये उत्पन्न हो जाता है वह व्यवहारसाधक नहीं हो सकता । इसीलिये प्रत्यक्षबलोत्पन्न 'यह नीला है यह पीला है' इत्यादि विकल्पों में निर्विकल्पककी विशदता और प्रमाणता झलक मारती है और वे व्यवहारमें प्रत्यक्षकी तरह प्रमाणरूपमें सामने आते हैं, किन्तु जो राजा नहीं है उस व्यक्तिको होनेवाला 'मैं राजा हूँ' यह विकल्प केवल शब्दवासनासे ही शेखचिल्लीकी कल्पना के समान उद्भूत होनेके कारण प्रमाण कोटिमें नहीं आ सकता । चूँकि निर्विकल्पक ओर तदुत्पन्न विकल्प अतिशीघ्रता से उत्पन्न होते हैं अतः स्थूल दृष्टि व्यवहारी समझता है कि मुझे विकल्पज्ञान ही उत्पन्न हुआ है या वह दोनोंको एक ही मान बैठता है । तात्पर्य यह कि जिन विकल्पों में केवल शब्दवासना और संकेत ही कारण है वे विकल्प कोरी कल्पनाएँ ही हैं, न तो वे प्रत्यक्ष कहे जा सकते हैं और न विशद ही ।
अनुमान विकल्पकी प्रक्रिया जुदी है - सर्वप्रथम धूम स्वलक्षणसे धूमनिर्विकल्पक होता है, फिर 'धूमोऽयम्' यह धूम विकल्पज्ञान, तदनन्तर व्याप्ति स्मरण आदिका साहाय्य लेकर 'यह अग्निवाला है' यह
(१) “भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः ।
हेतुत्वमेव युक्तिज्ञा ज्ञानाकारार्पणक्षमम् ॥ " - प्र० वा० २।२४७
(२) "मणिप्रदीपप्रभयोः मणिबुद्ध याभिधावतोः ।
मिथ्याज्ञानाविशेषेऽपि विशेषोऽर्थक्रियां प्रति ॥
तथाऽयथार्थत्वेऽप्यनुमानतदाभयोः ।
अर्थक्रियानुरोधेन प्रमाणत्वं व्यवस्थितम् ॥" - प्र० वा० २।५७-५८ ।
(३) “उक्तं च- न ह्यर्थे शब्दाः सन्ति तदात्मानो वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने तेऽपि प्रतिभासेरन् । ” – न्यायप्र० वृ० पृ० ३५ ।
यथा
(४) "मनसोर्युगपद्वृत्तेः सविकल्पाविकल्पयोः ।
विमूढो लघुवृत्तेर्वा तयोरैक्यं व्यवस्यति ॥ " - प्र०वा० २।१३३ ।
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