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प्रस्तावना
जहाँ तक ज्ञात हो सका है ग्रन्थकर्ता अनन्तकीर्ति यही हैं जिनके लघुसर्वशसिद्धि और बृहत्सर्वज्ञसिद्धि ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं तथा जिनकी जीवसिद्धि निबन्धका उल्लेख पार्श्वनाथचरितमें है। इन्हीं अनन्तकीर्तिका यह 'स्वतः प्रामाण्यभङ्ग' ग्रन्थ होना चाहिए । जैसा कि लिखा जा चुका है कि अनन्तकीर्तिका समय ई० ८४० के बाद और ई० ९८० के पहिले है ; तदनुसार हमें रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्यका समय भी रखना समुचित प्रतीत होता है। सोमदेव और अनन्तवीर्य
सिद्धिविनिश्चय टीका (पृ० २६७)में कर्मबन्धके प्रकरणमें अनन्तवीर्यने निम्नलिखित श्लोक 'तदुक्तम्' लिखकर उद्धृत किया है
"एषोऽहं मम कर्म शर्म हरते तद्वन्धनान्यास्रवैः, ते क्रोधादिवशाः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽवतात् । मिथ्याशानकृतात्ततोऽस्मि सततं सम्यक्त्ववान् सवतः,
दक्षः क्षीणकषाययोगतपसां कर्तेति मुक्तो यतिः॥" यह श्लोक सोमदेवसूरिके यशस्तिलक उत्तरार्ध (पृ० २४६) में है। गुणभद्राचार्यके आत्मानुशासन ग्रन्थमें इसी भावका एक श्लोक इस प्रकार पाया जाता है
"अस्त्यात्मास्तिमितादिबन्धनगतः तद्बन्धनान्यास्रवैः, ते क्रोधादिकृताः प्रमादजनिताः क्रोधादयस्तेऽवतात् । मिथ्यात्वोपचितात् स एव समल: कालादिलब्धौ क्वचित्, सम्यक्त्ववतदक्षताकलुषतायोगैः क्रमान्मुच्यते ॥"
-आत्मानुशासन श्लो० २४१ । उपर्युक्त दोनों श्लोकोंमें बिम्बप्रतिबिम्बभाव ही नहीं शब्द रचना भी बहुत कुछ मिलती जुलती है । आत्मानुशासनके कर्ता आचार्य गुणभद्रका जन्म शक ७४० (ई० ८१८) और कार्यकाल ई० ९०० तक रहा है | आ० सोमदेवसूरिने यशस्तिलक चम्पू चैत्र सुदी १३ शक संवत् ८८१ (ई० ९५९) में समाप्त किया था जैसा कि उसकी प्रशस्तिसे शात होता है । अतः यह निश्चित करनेमें कोई कठिनता नहीं है कि यशस्तिलकमें ही गुणभद्रके श्लोकका परिणमन किया गया है। सोमदेवने इस दलोकके बाद "इति च सुभाषितमास्वनिते निधाय" शब्द लिखे हैं । इससे स्पष्ट हो जाता है कि ये किसी सुभाषितका निर्देश कर रहे हैं; परन्तु उसका पाठ उन्होंने परिवर्तित किया है । सिद्धिविनिश्चय टीकामें यह श्लोक परिवर्तित पाठके साथ यशस्तिलक चम्पूसे आया है; क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थमें यह 'तदुक्तम्' करके दिया गया है जब कि यशस्तिलकमें वह परिवर्तित होकर मूलका अंग बन गया है । सोमदेवने गुणभद्रके आत्मानुशासनसे 'परिणाममेव कारणमाहुः' (४४) श्लोक भी यश० उ० (पृ० ३३६) में उद्धृत किया है । इसमें भी 'प्राक्षाः' के स्थानमें 'कुशलाः' पाठ परिवर्तित है । इस तरह ई० ९५९ में बनाये गये यशस्तिलक चम्पूके परिवर्तित श्लोकका उद्धरण अनन्तवीर्यके समयकी पूर्वावधि ई० ९६० निश्चित कर देता है, और उत्तरावधि वादिराजके पार्श्वनाथ चरितमें अनन्तवीर्यका स्मरण किया जाना तथा हुम्मचके शिलालेखमें इन्हें वादिराजके दादा गुरु श्रीपालका लघु सधर्मा लिखा जाना है । वादिराजने पार्श्वनाथ चरित शक ९४७ (ई० १०२५) में बनाया था, अतः उनके दादा गुरु श्रीपाल यदि ५० वर्ष पहिले हों तो वे ई० ९७५ के ठहरते हैं ।
यदि इस श्लोकका पाठपरिवर्तन हम सोमदेवसूरि द्वारा न मानकर किसी अन्य आचार्य' द्वारा भी माने और उसीका यशस्तिलक और प्रस्तुतग्रन्थमें उद्धरण मानें तो भी वह 'अन्य आचार्य' गुणभद्रके बादका
(१) देखो जैन सा० इ० पृ० १४१ । (२) जैनसा० इ० पृ० १७९ ।
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