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प्रस्तावना
हुए थे और मृग भी सुगत हुआ फिर भी जैसे आप लोग मृगको ही खाते हो सुगतको नहीं, उनकी तो वन्दना ही करते हो, ठीक उसी तरह पर्यायभेदसे दही और ऊँटके शरीरमें भेद है।' सिद्धिविनिश्चयस्व:त्ति (६।३७) में अदृश्यानुपलब्धिसे अभावकी सिद्धि न माननेपर वे कहते हैं कि
"दध्यादौ न प्रवर्तेत बौद्धः तद्भुक्तये जनः । अदृश्यां सौगतीं तत्र तनूं संशङ्कमानकः॥ दध्यादिके तथा भुक्ते न भुक्तं काञ्जिकादिकम् ।
इत्यसो वेत्तु नो वेत्ति न भुक्ता सौगती तनुः ॥" अर्थात् अदृश्यकी आशंकासे बौद्ध दही खानेमें निःशंक प्रवृत्ति न कर सकेंगे; क्योंकि वहाँ सुगतके अदृश्य शरीरकी शंका बनी रहेगी। दही खाने पर काँजी नहीं खाई यह तो वे समझ सकते हैं पर बुद्धशरीर नहीं खाया यह समझना उन्हें असंभव है।
प्रमाणसंग्रहमें उन्होंने धर्मकीर्तिकी 'जाड्य अह्रीक पशु अलौकिक प्राकृत और तामस' आदि कटूक्तियोंको जो वे प्रतिवादियोंके प्रति प्रयुक्त करते रहे हैं, बहुत कुछ उन्हें ही उन्हींके सिद्धान्तोंकी असङ्गतियोंका उल्लेख करके ठंडे तरीकेसे लौटा दिया है।
कथाकोशकी कथासे विदित होता है कि वे बालब्रह्मचारी निर्ग्रन्थव्रती थे और उनके मनमें अपने प्यारे भाईके बलिदानकी आग बराबर जल रही थी । इससे भी अधिक उनके मानसमें उथल-पुथल तो बौद्धोंके क्रान्तिकारी सिद्धान्तोंके प्रचारसे आत्मवादके लुप्त हो जानेसे मची हुई थी। शिलालेख उनपर ऋद्धिप्राप्त और महायतिके रूप में श्रद्धाप्रसून चढ़ाते हैं और उन्हें चारित्र्यभूधर कह उनके सामने नततस्तक हैं ।
___ इस तरह अकलङ्क एक महान् वाग्मी प्रज्ञा निष्णात ग्रन्थकार और दृढ़ चारित्र्यसम्पन्न युगप्रवर्तक महापुरुष थे। उनकी अकलङ्कप्रभासे जैनशासनगगन आज भी आलोकित है और रहेगा।
)"सुगतोऽपि मृगो जातः मृगोऽपि सुगतस्तथा । तथापि सुगतो वन्द्यो मृगः खाद्यो यथेष्यते ॥ तथा वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितः ।
चोदितो दधि खादेति किमुष्ट्रमभिधावति ॥"-न्यायवि० श्लो० ३७३-७४ । (२) “शून्यसंवृतिविज्ञानकथानिष्कलदर्शनम् ।
सञ्चयापोहसन्तानाः सप्तैते जाड्यहेतवः ॥ प्रतिज्ञाऽसाधनं यत्तत्साध्यं तस्यैव निर्णयः । यददृश्यमसंज्ञानं त्रिकमहीकलक्षणम् ॥ प्रत्यक्षं निष्कलं शेषं भ्रान्तं सारूप्यकल्पनम् । क्षणस्थानमसत्कार्यमभाष्यं पशुलक्षणम् ॥ प्रेत्यभावात्ययो मानमनुमानं मृदादिवत् । शास्त्रं सत्यं तपो दानं देवता नेत्यलौकिकम् ॥ शब्दः स्वयंभः सर्वत्र कार्याकार्येष्वतीन्द्रिये । न कश्चिचेतनो ज्ञाता तदर्थस्यति तामसम् ॥ पदादिसत्त्वे साधुत्वन्यूनाधिक्यक्रमस्थितिः । प्रकृतार्थाविधातेऽपि प्रायः प्राकृतलक्षणम् ॥"-प्रमाणसं० पृ० ११५-१६ ।
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