________________
७८
प्रस्तावना
" नन्वयमर्थोऽनन्तरकारिकावृत्तावुक्तः, न च पुनस्तस्यैधाभिधाने स एव समर्थितो नाम अतिप्रसङ्गात् किन्तु अन्यस्मात् हेतोः, स चात्र नोक्तः, तस्मात् उक्तार्थोऽनन्तरश्लोकोऽयम् इत्यनन्तवीर्यः ।”
अर्थात् यह अर्थ पूर्व कारिकाकी वृत्ति में कहा जा चुका है, बार बार उसी अर्थ के कहने से तो समर्थन होता नहीं है, किन्तु किसी अन्यहेतुसे उसका समर्थन करना चाहिए, पर वह हेतु यहाँ कहा नहीं है, अतः इस श्लोकका अर्थ पूर्वश्लोकमें कहा जा चुका है, यह उक्तार्थ है, ऐसा अनन्तवीर्य आचार्यका मत है । इस विवरणसे यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत टीकाकार अनन्तवीर्य 'आधत्ताम्' श्लोकको पूर्वश्लोकके समर्थनमें लगाना चाहते हैं जब कि जिनके मतका उल्लेख किया है वे अनन्तवीर्य इस 'आधत्ताम्' श्लोकको पूर्व श्लोकका समर्थक नहीं मानकर इसे उक्तार्थक कह रहे हैं। ऐसी दशा में यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत टीकाकार अनन्तवीर्य किसी अन्य अनन्तवीर्यका जो कि सिद्धिविनिश्चयके पूर्व टीकाकार हैं, उल्लेख कर रहे हैं। इसके समर्थन में निम्नलिखित प्रमाण भी विचारणीय हैं
(क) प्रस्तुत टीकाकार अनन्तवीर्य ग्रन्थकी पुष्पिकाओंमें अपनेको 'रविभद्रपादोपजीवी' 'रविभद्रपादकञ्जभ्रमर' आदि विशेषणों से रविभद्र का शिष्य सूचित करके पूर्वोक्त वृद्ध अनन्तवीर्य से स्वयं को जुदा बताना चाहते हैं ।
(ख) पूर्वोक्त कारिका ( नं० ५ ) के उत्थानमें अपना मतभेद दिखाकर प्रस्तुत टीकाकार अनन्तवीर्य वृद्ध अनन्तवीर्य के प्रति किञ्चित् सन्मान प्रकट करके भी यह सूचित करनेमें भी नहीं चूकते कि वे अकलङ्कके पदों के अर्थको पूरी तरह समझने में समर्थ नहीं हैं। इससे ध्वनित होता है कि प्रस्तुत टीकाकार रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्य अपने पूर्ववर्ती किसी अन्य अनन्तवीर्यका उल्लेख कर रहे हैं ।
(ग) प्रस्तुत टीका में अनेक स्थानों में 'अपरे इति पठन्ति' 'केषाञ्चिदयं पाठः' आदि कहकर प्रस्तुत अनन्तवीर्यने पूर्वकालीन टीकाकार या व्याख्याकारकी स्पष्ट सूचना ही नहीं दी है किन्तु उनकी व्याख्यासे अपना मतभेद भी प्रकट किया है ।
ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्यसे भिन्न एक और अकलङ्क के व्याख्याकार अनन्तवीर्य हुए हैं। जिन्हें हम 'वृद्ध | अनन्तवीर्य' संज्ञा देते आ रहे हैं ।
(३) पार्श्वनाथ चरितमें वादिराजसूरिने अनन्तवीर्यकी स्तुति करते हुए लिखा है कि उस अनन्त सामर्थ्यशाली मेघ के समान अनन्तवीर्यकी स्तुति करता हूँ जिनकी वचनरूपी अमृतवृष्टिसे जगत्को चाँट जानेवाला शून्यवादरूपी हुताशन शान्त हो गया था । इन्हींने न्यायविनिश्चय विवरण में अनन्तवीर्यको उस दीपशिखाके समान लिखा है जिससे अकलङ्क वाङ्मयका गूढ़ और अगाध अर्थ पद-पदपर प्रकाशित होता है । पार्श्वनाथ चरितकी रचना शक संवत् ९४७ ( ई० १०२५ ) में हुई थी ।
(४) आचार्य प्रभाचन्द्र अपने न्यायकुमुदचन्द्र के प्रारम्भमें जिनेन्द्रके विशेषण के रूपमें अकलङ्कके साथ ही अनन्तवीर्यका भी उल्लेख करते हैं । वे आगे उनका सबहुमान स्मरण करते हुए लिखते हैं कि अकलङ्कार्थका अभ्यास और विवेचन मैंने अनन्तवीर्यकी उक्तियोंसे ही सैकड़ों बार किया है। प्रभाचन्द्र
(१) देखो पृ० ६७ ।
(२) देखो - पृ० ६७ टि० १ । तथा पाठान्तरोंका परिशिष्ट, पृ० ७६४ ।
(३) " वदाम्यनन्तवीर्याब्दं यद्वागमृतवृष्टिभिः ।
जगज्जिघत्सन्निर्वाणः शून्यवादहुताशनः ॥ " - पार्श्वनाथच० ।
(४) न्यायवि० वि० प्र० पृ० १ ।
(५) 'शाकाब्दे नगवार्धिरन्ध्रगणने संवत्सरे क्रोधने । " - पार्श्वनाथच० प्रश० लो० ५ । (६) "श्रीमजिनेन्द्रम कलङ्कमनन्तवीर्यमानम्य” – न्यायकुमु० पृ० १ ।
(७) “स्वभ्यस्तश्च विवेचितश्च सततं सोऽनन्तवीर्योक्तितः । " - न्यायकुमु० पृ० ६०५ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org