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ग्रन्थकार अनन्तवीर्य : समय निर्णय श्रीपालदेवके लघुसधर्माके रूपमें किया गया है। ये द्रविड़ संघके नन्दिगणके आचार्य थे । यह लेख शक १०६९ (ई० ११४७) का है। __ इन दस शिलालेखोंमें तीन परम्पराओंके अनन्तवीर्योंका उल्लेख है
(१) द्रविण संघ नन्दिगण अरुंगलान्वयकी परम्पराके अनन्तवीर्य जो अकलङ्कसूत्रके वृत्तिकार थे। नं० ४ नं० ५ और नं० १० के अनन्तवीर्य इसी परम्पराके व्यक्ति हैं । ये वादिराजके दादागुरु श्रीपालके लघुसधर्मा थे । वादिराजका समय ई० १०२५ है । अतः उनके दादागुरु ५० वर्ष पहिले अर्थात् ई० ९७५ के आसपास होंगे । नं० १ अनन्तवीर्य वीरसेनसिद्धान्तिदेवके प्रशिष्य और गोणसेनके शिष्य थे। क्राणूरगणके आचार्योंमें वीरसेनसिद्धान्तिदेव और गोणसेनका उल्लेख नहीं मिलता । अतः यही लगता है कि ये अनन्तवीर्य क्राणूरगणके न होकर सम्भवतः द्रविडसंघीय हों और नं० ४, ५ और १० से अभिन्न हों।
(२) सूरस्थगणके अनन्तवीर्य । ये सूरस्थगणके आदि चारित्रभूधर कहे गये हैं। नं०७ के ये अनन्तवीर्य अकलङ्कसूत्रके वृत्तिकार नहीं हैं।
(३) क्राणूरगणके अनन्तवीर्य। नं०६ नं० ८ और नं० ९ के तीनों अनन्तवीर्य इसी परम्पराके व्यक्ति ज्ञात होते हैं। नं० २ और नं० ३ के अनन्तवीर्य भी यापनीय सूचित किये गये हैं, अतः ये भी क्राणूरगणके अनन्तवीर्यसे अभिन्न मालूम होते हैं।
अकलङ्कसूत्रके वृत्तिकार दो अनन्तवीर्य हुए हैं । एक रविभद्रपादोपजीवी और दूसरे इन्हीं अनन्तवीर्यद्वारा उल्लिखित सिद्धिविनिश्चयके प्राचीन व्याख्याकार अनन्तवीर्य जिन्हें हम 'वृद्ध अनन्तवीर्य' कह आये हैं । यह कहना कठिन है कि हुम्मचके शिलालेखमें अकलङ्कसूत्रके वृत्तिकर्ताके रूपमें किस अनन्तवीर्यका उल्लेख है । प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चयटीकाके कर्ता अनन्तवीर्य ई० ९५९ के बाद और ई० १०२५ से पहिले किसी समय हुए हैं यह हम आगे प्रमाणित करेंगे । अतः ई० ९७७ से ई० ११४७ तक के इन शिलालेखोंमें दोनों से किसी भी अनन्तवीर्यका उल्लेख होनेमें कोई बाधा नहीं है। किन्तु लगता यह है कि जो अनन्तवीर्य वादिराजके दादागुरु श्रीपालके सधर्मारूपसे उल्लिखित हैं वही हमारे टीकाकार अनन्तवीर्य हैं । वृद्ध अनन्तवीर्य इनसे कुछ और पहिले हो सकते हैं।
अब कुछ ऐसे अन्तरङ्ग प्रमाण उपस्थित किये जाते हैं जिनसे शिलालेखोक्त समयावधिके समर्थन की सामग्री उपस्थित होती हैग्रन्थोल्लेख
अनन्तवीर्यका जिन ग्रन्थों में नाम लेकर उल्लेख स्मरण या समीक्षण है, वे इस प्रकार हैं
(१) तत्त्वार्थवार्तिक' (पृ० १५४) में वैक्रियिक और आहारक शरीरमें भेद बताते हुए लिखा है कि वैक्रियिक शरीर का क्वचित् प्रतिघात भी देखा जाता है। इसके समर्थनमें उन्होंने अनन्तवीर्ययतिके द्वारा इन्द्रकी शक्तिका प्रतिघात करनेकी घटनाका उल्लेख किया है। ये अनन्तवीर्ययति निश्चयतः अकलङ्कदेवसे बहुत पहिले हुए हैं; क्योंकि इस घटनाका उल्लेख वे 'प्रतिघातश्रुतेः' शब्दसे 'सुनी हुई' बताते हैं । अकलङ्कदेवका समय ई० ७२० से ७८० सिद्ध किया जा चुका है।
(२) प्रस्तुत सिद्धिविनिश्चय टीका में एक और अनन्तवीर्यका उल्लेख आता है । प्रथम प्रस्तावकी कारिका (नं०५) के उत्थानमें प्रस्तुतटीकाके कर्ता रविभद्रशिष्य अनन्तवीर्य लिखते हैं कि
"इममेवाथै समर्थयमा [नः] प्राह-आधत्ताम् इत्यादि"
अर्थात् इसी अर्थके समर्थनके निमित्त 'आधत्ताम्' आदि कारिका कहते हैं। इसके आगे वे एक अन्य अनन्तवीर्य का मत उद्धृत करते हैं कि
(१) जैनशि० तृ० पृ० ७२ ।
(२) "अनन्तवीर्ययतिना चेन्द्रवीर्यस्य प्रतिघातश्रुतेः सप्रतिघातसामर्थ्य वैक्रियिकम् ।"-त. वा पृ० १५४ । (३) पृ० ३१ ।।
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