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प्रस्तावना
प्रसन्न और सुबोध शैलीसे वस्तुतत्त्वका स्फुट और विशद निरूपण करते हैं अष्टशती और सिद्धिविनिश्चयादि ग्रन्थों में वे उतने ही ओजःपूर्ण, दुरूह और गूढ बन जाते हैं । यहाँ उनकी भाषामें ओजस्विता, तीक्ष्णता और व्यंग्यकी पुट बराबर लक्षित होती है; इसका कारण है बौद्ध दार्शनिकोंके वाग्बाणोंके प्रहारसे उनके मनका विक्षुब्ध हो जाना।
___अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थवार्तिक और अष्टशती ये दो टीका ग्रन्थ लिखे हैं तथा लघीयत्रय सवृत्ति, न्यायविनिश्चय सवृत्ति, प्रमाणसंग्रह और सिद्धिविनिश्चय सवृत्ति ये चार स्वतन्त्र ग्रन्थ लिखे हैं। उनके सभी दार्शनिक ग्रन्थ लघुकाय हैं। १ तत्त्वार्थवार्तिक सभाष्य
यह गृद्धपिच्छाचार्य उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्र ग्रन्थपर उद्योतकरके न्यायवार्तिककी शैलीसे लिखा गया प्रथम वार्तिक है। इसमें जीव अजीव आस्रव बन्ध संवर निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वोंका साङ्गोपाङ्ग सर्वाङ्ग विवेचन ऊहापोह पूर्वक किया गया है। इसमें वार्तिक जुदे हैं तथा उनकी व्याख्या जुदी है । यह व्याख्या 'भाष्य' शब्दसे भी उल्लिखित हुई है। इसकी पुष्पिकाओं में इसका नाम तत्त्वार्थवार्तिकव्याख्यानालंकार दिया गया है। पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिका बहुभाग इसमें मूलवार्तिकका रूप पा गया है। इसमें तत्त्वा
र्थाधिगम भाष्यके भी अनेक वाक्य वार्तिकके रूपमें पाये जाते हैं । अकलङ्कदेवने तत्त्वार्थाधिगमभाष्य तथा तत्सम्मत सूत्रपाठ की आलोचना अनेक स्थलोंमें की है । इससे यह निर्विवाद है कि अकलङ्कदेवके सामने श्वेताम्बरपरम्परासम्मत सूत्रपाठ और स्वोपज्ञभाष्य था । उन्होंने उस भाष्यका 'वृत्ति' शब्दसे उल्लेख किया हैं । दसवें अध्यायके अन्तका गद्यभाग और ३२ पद्य ज्यों के त्यों इसके अंग बन गये हैं। इसमें द्वादशांगके निरूपणमें क्रियावादी अक्रियावादी आज्ञानिक आदिमें जिन साकल्य वाप्कल कुथुमि कठ मध्यन्दिन मौद पैप्पलाद गार्ग्य मौद्गल्यायन आश्वलायन आदि ऋषियों के नाम लिये हैं वे सब ऋग्वेदादिके शाखा ऋषि हैं। तत्त्वार्थवार्तिकमें अनेक स्थलोंमें षटखंडागमके सूत्र और महाबन्धके वाक्य उद्धृत किये गये हैं और उनसे संगति बैठाई है । यह ऐसा आकर ग्रन्थ हैं जिसमें सैद्धान्तिक भौगोलिक और दार्शनिक सभी चर्चाएँ यथास्थान मिलती हैं । सर्वत्र अनेकान्त दृष्टिका प्रयोग होनेसे ऐसा लगता है जैसे सैद्धान्तिक तत्त्वप्ररोहोंकी रक्षाके लिये अनेकान्तकी बाड़ी लगाई जा रही हो । सर्वत्र भेदाभेद नित्यानित्यत्व और एकानेकत्वके समर्थनका क्रम अनेकान्त प्रक्रियासे दृष्टिगोचर होता है। स्वरूपचतुष्टयके ग्यारह-बारह प्रकार, सकलादेश विकलादेशका विस्तृत प्रयोग तथा सप्तभङ्गीका विशद और विविध विवेचन इसी ग्रन्थमें अपनी विशिष्ट शैलीसे मिलता है।
इसमें दिग्नागके प्रत्यक्षलक्षण-कल्पनापोढका खण्डन है पर धर्मकीर्तिकृत 'अभ्रान्त' पदविशिष्ट प्रत्यक्षलक्षणका नहीं । यद्यपि धर्मकीर्तिकी सन्तानान्तरसिद्धिका आद्य श्लोक 'बुद्धिपूर्वो क्रियां' उद्धृत है फिर भी ऐसा लगता है जैसे तत्त्वार्थवार्तिककी रचनाके समय धर्मकीर्तिके अन्य प्रकरण अकलङ्कदेवके अध्ययनमें न आये हों। इसीलिये लगता है कि तत्त्वार्थवार्तिक अकलङ्कदेवकी आद्य कृति है। अकलङ्कदेव अच्छे वैयाकरण भी थे। सूत्रों में शब्दोंकी सार्थकता तथा व्युत्पत्ति करनेमें उनके इस स्वरूपके खूब दर्शन होते हैं । यद्यपि वे सर्वत्र पूज्यपादकृत जैनेन्द्र व्याकरणका ही उद्धरण देते हैं, पर पाणिनि और पातञ्जलभाष्यको वे भूले नहीं है । भूगोल और खगोलके विवेचनमें त्रिलोकप्रज्ञप्ति उनके सामने रही है। वस्तुतः यह तत्त्वार्थकी उपलब्ध टीकाओंमें मूर्धन्य और आकर ग्रन्थ है ।
(१) धवलाटीका, न्यायकुमु० पृ. ६४६ । (२) "एषां च पूर्वस्य लाभे भजनीयमुत्तरम् । उत्तरलाभे तु नियतः पूर्वलाभः ।"-त. भा० ॥१। (३)त. वा० पृ० १७।। (४) "पृथुतराः इति केषाञ्चित् पाठः"-त. वा० ३।। (५)त. वा० पृ० ४४४ ।
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