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ग्रन्थकार अकलङ्क जीवनगाथा
शुभचन्द्राचार्यने तो मुग्ध होकर उनकी पुण्य सरस्वतीको अनेकान्त गगनकी चन्द्रलेखा लिखा है।
जीवनगाथा अकलङ्कदेवकी जीवनगाथा न तो उनके उपलब्ध ग्रन्थों में पाई जाती हैं और न उनके समकालीन या अति निकट उत्तरवर्ती किसी लेखकके ग्रन्थों में ही। उपलब्ध कथाकोशोंमें हरिषेणकृत कथाकोषमें समन्तभद्र
और अकलङ्क जैसे युगनिर्माता आचार्योंकी कथाएँ ही नहीं हैं । हरिषेणने स्वयं अपने कथाकोशकी समाप्तिका काल शकसंवत् ८५३ (ई० ९३१) दिया है । इसके अनन्तर भट्टारक प्रभाचन्द्रके गद्यकथाकोशमें सर्वप्रथम अकलङ्कदेवकी कथा मिलती है । यह कथाकोश जैसा कि उसकी अन्तिम प्रशस्ति से विदित होता है उन्हीं प्रसिद्ध प्रभाचन्द्रकी कृति है जिन्होंने न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्डकी रचना की है। प्रभाचन्द्रका समय हमने ई० ९८०-१०६५ तक सिद्ध किया है। प्रभाचन्द्रने यह कथाकोश जयसिंहदेवके राज्य (ई० १०५५) में बनाया था । अकलङ्कदेवके जीवनवृत्तके लिये हमें अभी यही एक पुराना साधन उपलब्ध है । इसी कथाकोशको ब्रह्मचारी नेमिदत्तने वि० सं० १५७५ के आसपास पद्य रूपमें परिवर्तित किया था, यह बात स्वयं उन्हींके उल्लेखसे विदित हो जाती है। देवचन्द्रकृत कनड़ी भाषाकी राजावलीकथेमें भी अकलङ्ककी कथा है । इसका रचनाकाल १६ वीं सदीके बाद का है।
गद्य कथाकोश' तथा नेमिदत्तके कथाकोश में अकलङ्कदेवकी कथा इस प्रकार है:-"मान्यखेट नगरीके राजा शुभतुंगके पुरुषोत्तम नामका मन्त्री था। उसके दो पुत्र थे-एक अकलङ्क और दूसरा निकलङ्क । एक बार अष्टाह्निका पर्वमें माता पिताके साथ दोनों भाई जैन गुरु रविगुप्तके पास गये । माता पिताने इस पर्व में ब्रह्मचर्य व्रत लिया और अपने बालकोंको भी दिलाया । जब ये युवा हुए तो पुराने ब्रह्मचर्य व्रतको यावजीवन व्रत मानकर इन्होंने विवाह नहीं किया। पिताने समझाया कि वह प्रतिज्ञा तो पर्व के लिये थी पर ये कुमार अपनी बातपर दृढ़ रहे और इन्होंने आजन्म ब्रह्मचारी रहकर अपना समय शास्त्राभ्यासमें लगाया । अकलङ्क एकसन्धि तथा निकलङ्क द्विसन्धि थे । जैनधर्म पर बौद्धोंके आक्षेपोंसे उनका चित्त विचलित हो रहा था और वे इसके प्रतीकारार्थ बौद्धशास्त्रोंका अध्ययन करनेके लिये बाहर निकल पड़े। वे अपना धर्म छिपाकर एक बौद्धमठमें विद्याध्ययन करने लगे । एक दिन गुरुजीको दिग्नागके अनेकान्त खण्डनके पूर्वपक्षका कुछ पाठ अगट होने के कारण नहीं लग रहा था। उस दिन पाठ बन्द कर दिया गया। रात्रिको अकलङ्कने वह पाठ (१) "श्रीमद्भट्टाकलङ्कस्य पातु पुण्या सरस्वती।
अनेकान्तमरुन्मार्गे चन्द्रलेखायितं यया ॥"-ज्ञानार्णव । (२) सत्साधुस्मरण मङ्गलपाठ ।
(8) "श्री जयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपञ्चपरमेष्टिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलङ्कन श्रीमत्प्रभाचन्द्रपण्डितेन आराधनासत्कथाप्रबन्धः कृतः।" -गद्यकथा को० लि. पृ. ११५ । न्यायकुमु० प्र० प्रस्ता० पृ. १२३ ।
(४) न्यायकुमु० द्वि० प्रस्ता० पृ० ५०-५८ । (५) डॉ.ए.एन. उपाध्ये भी इसका यही रचनाकाल मानते हैं-बृहत्कथाकोश प्रस्ता० पृ० ३०-६२ । (6) "देवेन्द्रचन्द्रार्कसमर्चितेन तेन प्रभाचन्द्रमुनीश्वरेण ।
अनुग्रहार्थ रचितं सुवाक्यैर।राधनासारकथाप्रबन्धः ॥
तेन क्रमणैव मया स्वशक्त्या श्लोकः प्रसिहश्च निगद्यते सः।"-नेमिदत्तकृत कथाकोश पृ० ।। (७) डॉ० उपाध्ये गद्यकथाकोश प्रेस कापी, पृ० ३-८ । (6) आराधना कथाकोश पृ० ७-१८ । ९) न्यायकुमुदचन्द्र प्र० भाग प्रस्ता० पृ०२८ ।
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