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ग्रन्थकार अकलङ्क जीवनगाथा
कृष्णराजका प्रकाशित किया है। यह सितम्बर सन् ७५८ का है । अतः डॉ० आल्तेकर ई० ७५६ में ४५ वर्षकी अवस्थामें कृष्ण प्रथमका राज्याधिरोहण मानते हैं ।
यद्यपि अमोघवर्ष के पहिले भी मान्यपुरका उल्लेख उपलब्ध है और अमोघवर्ष के पहिले मान्यखेट राजधानी नहीं थी ऐसा उल्लेख नहीं है फिर भी यदि यही मान लिया जाय कि अमोघवर्षने ही मान्यखेटको राजधानी बनाया था तो इससे इतना ही कहा जा सकता है कि-कथाकोशकारके समय राष्ट्रकूटोंके साथ मान्यखेटका सम्बन्ध दृढ़मूल हो गया था और इसलिए कथाकोशकारने कृष्णराजको मान्यखेटका अधिपति लिख दिया है।
. (२) 'शुभतुंगके मन्त्री पुरुषोत्तम थे।' यद्यपि अभी तक किसी दूसरे प्रमाणोंसे पुरुषोत्तमके मन्त्री होनेका कोई समर्थन नहीं हो सका है फिर भी अकलङ्कदेवका मन्त्रीपुत्र होना अनहोनी बात नहीं है । ये स्वयं जागीरदार या ताल्लुकेदार होकर 'नृपति' कहे जाते होंगे।
(३) 'कलिंगाधिपति हिमशीतलकी सभामें शास्त्रार्थ करना' यद्यपि स्पष्टरूपसे अभी कोई हिमशीतल इतिहासके पृष्ठोंपर अवतीर्ण नहीं हो सका है फिर भी डॉ. ज्योतिप्रसादजी ने 'अकलङ्क परम्पराके महाराज हिमशीतल' लेखमें त्रिकलिङ्गाधिपति सोमवंशी सम्राट नगहुषराज महाभवगुप्त चतुर्थ (ई० १९-६४४) को हिमशीतलके रूपमें निश्चित करनेका प्रयत्न किया है । किन्तु उनका समस्त लेख यह मानकर चला है कि अकलंक चरितमें उल्लिखित ७०० संवत्का शास्त्रार्थ विक्रम सं० ७०० में
का शास्त्रार्थ विक्रम सं० ७०० में हुआ था, अतः सन् ६४३ के आसपास किसी राजाकी खोज की जाय और उन्होंने नगहुषराज महाभवगुप्त चतुर्थको हिमशीतल मान लिया किन्तु जब अकलंकका समय सुदृढ़ प्रमाणोंसे ई० ७२०-७८० सिद्ध हो रहा है, तब इस प्रकारकी खींचतान पूर्वक की गई कल्पनाओंसे इतिहासकी रक्षा नहीं हो सकती । निष्कलङ्ककी समस्या
निष्कलङ्कके विषयमें पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्रीने लिखा है कि-"किसी भी शिलालेख या ग्रन्थमें निकलङ्क नामके व्यक्तिका उल्लेख नहीं पाया जाता । दूसरोंका तो कहना ही क्या स्वयं अकलङ्क तक उसके सम्बन्धमें मूक हैं। जरा सोचिए तो सही, छोटा भाई बड़े भाईके प्राण बचानेके लिये सिर कटवा दे और इस प्रकार जीवनके महत् उद्देश्य जिनशासनके प्रचार और प्रसारमें सहायक हो और बड़ा भाई उसके इस महान् त्यागकी स्मृतिमें उसका नाम तक भी न ले, क्या यह सम्भव है ? हम हैरान हैं कि कथाकारने किस आधारपर अकलङ्कके साथ निकलङ्ककी कल्पना कर डाली ।" उनका यह लिखना विचारणीय है । प्राकृत कथावलीसे कालकी दृष्टि से गद्यकथाकोश पुराना है, अतः उसके आधारसे इसमें यह कल्पना नहीं आ सकती । तत्त्वार्थवार्तिकके 'नृपतिवरतनयः' से यदि अकलङ्कको वरतनय-ज्येष्ठपुत्र माना जाय तो अवश्य उनके लघुभ्राताकी सूचना मिलती है। तत्त्वार्थवार्तिक गत श्लोकतत्त्वार्थवार्तिक' प्रथम अध्यायके अन्तमें निम्नलिखित श्लोक पाया जाता है
"जीयाञ्चिरमकलङ्कब्रह्मा लघुहव्वनृपतिवरतनयः । अनवरतनिखिलविद्वजननुतविद्यः प्रशस्तजनहृद्यः॥"
(१) दी राष्ट्रकूटॉज० पृ० ४४। (२) ज्ञानोदय वर्ष २ अंक १७-२१ तक । (३) न्यायकुमु० भाग १ प्रस्ता० पृ. ३२ । (४) भारतीय ज्ञानपीठका संस्करण पृ० ९९ ।
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