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ग्रन्थकार अकलङ्क : तुलना अकलङ्कका समकालीन और परवर्ती आचार्योपर प्रभावऊपरकी तुलनासे अकलङ्कके पूर्ववर्ती और समकालीन आचार्यों के साथ उनके साहित्यिक प्रभावका यत्किंचित् दिग्दर्शन करानेके अनन्तर अब अकलङ्कके द्वारा प्रतिष्ठित अकलङ्क न्यायके विस्तार और प्रसारका भी आभास दिया जा रहा है। सामान्यतया अकलङ्कके द्वारा स्थापित व्यवस्थाओंको सभी उत्तरकालीन दि० श्वे० आचार्योंने स्वीकार किया है और उन्हें प्रमाणभूत मानकर उनका विकास किया है। केवल शान्तिसूरि और आचार्य मलयगिरिने उनके विचारोंसे मतभेद प्रकट किया है।
अजैन ग्रन्थोंमें अकलङ्कदेवका अवतरण केवल एक स्थानपर मिला है, वह है दुर्वेकमिश्र (ई० १० का अन्त) द्वारा धर्मोत्तरप्रदीप' में अकलङ्कका नाम लेकर सिद्धिविनिश्चयका दिया गया उद्धरण।
अकलङ्कका उल्लेख करनेवाले, उनका उद्धरण देनेवाले तथा उनके आलोचक जैन आचार्य इस प्रकार हैंधनञ्जय कवि
धनञ्जय कविका द्विसन्धान काव्य तथा नाममाला कोश प्रसिद्ध है। इनका समय डॉ० के० बी० पाठक ने ई० ११२३-११४० माना है । 'संस्कृत साहित्यका संक्षिप्त ईतिहास' के लेखकद्वयने भी इनका समय १२ वीं सदी ही माना है । किन्तु
प्रभाचन्द्र (ई० ९८०-१०६५) ने इनके द्विसन्धानका उल्लेख प्रमेयकमलमार्तण्ड ( पृ० ४०२) में किया है।
वादिराजसूरि (ई० १०२५) ने पार्श्वनाथ चरित में इनकी प्रशंसा की है।
आ० वीरसेन (ई० ७४८-८२३) ने धवलाटीकामें धनञ्जयकी अनेकार्थनाममालाका "हेतावेवं प्रकाराद्यैः" श्लोक उद्धृत किया है । अतः इनका समय ई०८ वीं सदी निश्चित होता है । इन्होंने अपनी नाममाला के अन्त में
"प्रमाणमकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणम् ।
धनञ्जयकवेः काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् ॥" लिखकर अकलङ्कके प्रमाणशास्त्रकी प्रशंसा की है। वीरसेनाचार्य
सिद्धान्तपारगामी आचार्य वीरसेन षटखंडागमकी धवलाटीका तथा कसायपाहुडकी जयधवला (२० हजार दलोक प्रमाण) के रचयिता थे। इनका समय ई० ७४८-८२३ है । ये अकलङ्कके लघु समकालीन हैं।
इन्होंने अकलङ्कदेवका उल्लेख 'पूज्यपाद भट्टारक'के नामसे तथा उनके तत्त्वार्थवार्तिकका उल्लेख 'तत्त्वार्थभाष्य'के नामसे इस प्रकार किया है
"पूज्यपादभट्टारकैरप्यभाणि सामान्यनयलक्षणमिदमेव तद्यथा प्रमाणप्रकाशितार्थप्ररूपको नयः।"-धवला टीका (प० ७००)
(१) “यदाह अकलङ्कः..."-धर्मोत्तर प्र० पृ० २४६ । (२) देखो-सिद्धिवि० टी० पृ. ५८० टि० ३॥ (३) न्यायकुमु० द्वि० प्रस्ता० पृ० २७। (४) पृ० १७३। (५) पृ० ४ । (६) घवला पु० १ प्रस्ता० पृ० ६२। (७) जैनसा० इ० पृ० १४०। (८) षट् खं० पुस्तक १ प्रस्ता० पृ० ६१ ।
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