________________
ग्रन्थकार अकलङ्क: तुलना
आशाधर
प्रज्ञापन पं० आशाधरजी (ई० ११८८-१२५०) ने भी अकलङ्क-वाङ्मयका पारायण किया था। इन्होंने अनगारधर्मामृतटीका और इष्टोपदेशटीका' में लघीयस्त्रयका चौथा और बहत्तरवाँ श्लोक उद्धृत किया है। इनका स्याद्वादविद्याका निर्मल प्रासाद 'प्रमेयरत्नाकर' ग्रन्थ अप्राप्य है अन्यथा इनके अकलङ्कवाङ्मयके अवगाहनका और भी पता लगता। अभयचन्द्र
अभयचन्द्रसूरि (ई० १३ वीं) ने अकलङ्कदेवके लधीयस्त्रयपर एक छोटीसी तात्पर्यवृत्ति रची है और भट्टाकलङ्क शशाङ्ककी कौमुदीसे उसे समुज्ज्वल बनाया है। देवेन्द्रसूरि
___ कर्मग्रन्थकार आचार्य देवेन्द्रसूरि' (ई० १३ वीं) के विद्वान् हैं। इन्होंने कर्मग्रन्थकी टीका में लघीयस्त्रयका 'मलविद्धमणि' श्लोक उद्धृत किया है । धर्मभूषण
न्यायदीपिकाकार धर्मभूषणयति (ई० १४ वीं) ने न्यायदीपिका में लघीयस्त्रय और न्यायविनिश्चय के उद्धरण दिये हैं तथा अकलङ्क न्यायका दीपन किया है । विमलदास
विमलदास गणिने नव्य शैलीमें सप्तभङ्गितरङ्गिणी ग्रन्थ लिखा है। इन्होंने 'तदुक्तं भट्टाकलङ्कदेवैः' के साथ यह श्लोक उद्धृत किया है।
"प्रमेयत्वादिभिः धर्मेरचिदात्मा चिदात्मकः।
शानदर्शनतस्तस्माच्चेतनाचेतनात्मकः ॥” यह श्लोक स्वरूपसम्बोधनमें मूल (श्लो०३) रूपसे विद्यमान है । स्वरूपसम्बोधन ग्रन्थ रचना आदि की दृष्टि से अकलङ्कका तो नहीं मालूम होता। यह महासेनकृत भी कहा जाता है । इस पर पाण्डवपुराणके कर्ता शुभचन्द्रने वृत्ति लिखी थी-यह पाण्डवपुराणकी प्रशस्तिसे ज्ञात होता है।
विमलदासगणिने अकलङ्क वाङ्मयका आलोडन किया था और सकलादेश विकलादेशके प्रकरण में कालादि आठकी दृष्टि से भेदाभेद निरूपण करके उसका पर्याप्त प्रसार किया है । यशोविजय--
नव्यन्याययुग प्रवर्तक उपाध्याय यशोविजयजी३ (ई० १७ वीं सदी) अकलङ्कन्यायके गहरे अभ्यासी और समर्थक थे। इनके जैनतर्कभाषा शास्त्रवार्तासमुच्चयटीका" गुरुतत्त्वविनिश्चय आदि ग्रन्थों में अकलङ्कः
(१) जैनसा० इ० पृ० ३४२॥ (२) पृ० १६९। (३) पृ०३० । (४) लघी० प्रस्ता० पृ० ५। (५) 'चत्वारः कर्मग्रन्थाः' की प्रस्ता० पृ० १६ । (३) प्रथम कर्मग्रन्थटीका पृ० ८। (७) श्लो० ५७ ।। (८) न्यायदीपिका प्रस्ता० पृ. ९६-९८ । (९) पृ० १२५, २४ और ७० में । (१०) श्लो० ५२। (११) श्लो० १३ और श्लो. २११७२ । (१२)न्यायकुमु० प्र. प्रस्ता०प० ५४ । (१३) जैनतकभाषा प्रस्ता०। (१४) पृ० २५। (१५) पृ० ३१० ख०। (१६) पृ० १६ । (१७) क्रमशः लघी० स्ववृ० श्लो० ७६, श्लो० ४, श्लो० ३०, ६३ ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org