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प्रस्तावना
"माही महानदीरेवा-रोधोभित्तिविदारणं ...'यो वल्लभं सपदिदण्डबलेन जित्वा
राजाधिराज परमेश्वरतामुपैति ॥ कांचीशकेरलनराधिपचोलपाड्य श्रीहर्षवज्रटविभेदविधानदक्षम् । कर्णाटकं बलमनन्तमजेयरथ्यै-भृत्यैः कियद्भिरपि यः सहसा जिगाय ॥ अर्थात् इस (दन्तिदुर्ग) के हाथी माही महानदी और नर्मदा तक पहुँचे थे।
इसने रथोंकी फौज लेकर ही कांची केरल चोल और पांड्यदेशके राजाओंको तथा राजाहर्ष और वज्रटको जीतनेवाली कर्णाटककी सेनाको हराया था। कर्णाटककी सेनासे चालुक्योंकी सेनाका ही तात्पर्य है; क्योंकि चालुक्यराज पुलकेशी द्वितीयने वैसवंशी राजा हर्षको जीता था, जैसा कि एहोलेके शिलालेखसे विदित है । इसी दन्तिदुर्गने उजयिनीमें सुवर्ण और रत्नोंका दान दिया था।"
इस वर्णनसे हम समझ सकते हैं कि त्यागोन्नत और साहसका प्रतीक 'साहसतुंग' पद उस शुभतुंगके पूर्ववर्ती राजाकी ओर इंगित कर रहा है जिसने चौलुक्योंकी सेनाको जीता था ।
___ 'भारतके प्राचीन राजवंश" में दन्तिदुर्गकी उपाधियोंमें 'साहसतुंग' उपाधिका भी नाम दिया है । राष्ट्रकूटोंके विशिष्ट अभ्यासी डॉ० अल्टेकरने भी संभावना की है कि दन्तिदुर्ग ही साहसतुंग है और जैसा कि आगे बताया जायगा कि-साहसतुंग दन्ति दुर्ग द्वितीयका ही नाम है यह प्राप्त शिलालेखसे भी सिद्ध हो जाता है।
प्रभाचन्द्र के गद्यकथाकोशके अनुसार यदि अकलङ्कदेव शुभतुंगके मन्त्रीके पुत्र हैं तो भी ये साहसतुंगकी सभामें अपने शास्त्रार्थकी बात कह सकते हैं । शुभतुंग कृष्णप्रथम, साहसतुंगदन्तिदुर्गके चाचा थे और वे दन्तिदुर्गकी युवावस्थामें मृत्यु हो जानेके बाद राज्याधिरूढ हुए थे। इनके मन्त्री पुरुषोत्तम इनसे वृद्ध हो सकते हैं, अतः जैसा कि आगे अन्य प्रमाणोंसे सिद्ध होगा कि 'अकलङ्कका समय ई० ७२०-७८० है', मान लिया जाय तो अकलङ्क साहसतुंगके राज्यके अन्तिम वर्षों में ३० वर्ष के युवा होंगे और वे अपने शास्त्रार्थकी चर्चा उनकी सभामें कर सकते हैं ।
इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर भी सहज में पहुँच सकते हैं कि मल्लिषेण प्रशस्ति और गद्यकथा कोश का वर्णन अधिक प्रामाणिक है । उसका समर्थन ग्रन्थों के आन्तरिक प्रमाणों से भी हो जाता है।
ऊपर यह बताया जा चुका है कि रणविजयी और त्यागोन्नत विशेषण शुभतुंगसे पूर्ववर्ती किसी राजाको यदि ठीक ठीक बैठते हैं तो वह दन्तिदुर्ग द्वितीय ही है, और उसका ही विरुद साहसतुंग होना चाहिए; क्योंकि तुङ्गान्त विरुदोंका राष्ट्रकूटोंमें ही परम्परागत विशेष प्रचलन था-जैसा कि आगे उद्धृत शिलालेख के "तुङ्गान्धयोसुङ्गजयध्वजेन" इस वाक्य में राष्ट्र कुटवंशका 'तुङ्गान्वय'शब्दसे उल्लेख भी है।
और अब डॉ०बी.ए. सालेतोरने रामेश्वर प्राठ्ठठूरु ता कुडप्पाह जिला मद्रासके रामलिंगेश्वर मन्दिरके प्रांगण में प्राप्त स्तम्भलेख से साहसतुंगकी समस्याको सप्रमाण हल कर दिया है। उन्होंने अपने विद्वत्तापूर्ण लेख में उक्त मन्दिरके स्तम्भलेखका विवरण इस प्रकार दिया है-'यह स्तम्भलेख संस्कृत और कन्नड भाषामें तथा कन्नड लिपिमें लिखा हुआ है । लेखमें कोई तिथि नहीं है किन्तु यह राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीय (ई० ९४०-६८) के समयका है । इस लेखमें इनके सामन्त कन्नायके द्वारा रामेश्वर मन्दिरको दिये गये दानका तथा तिप्पय
(१) भाग ३ पृ. २७। (२) दी राष्ट्रकूटाज़० पृ. ३४ का फुटनोट । (३) दी राष्ट्रकूटाज़० पृ० ४०९ । (४) साउथ ई. ई. भाग ९ पृ० ३९-४२ । लेख नं. ४२। (५) साउथ इं० इं० भाग ९ नं. ४२ । (6) जर्नल ऑफ बम्बई हि० सो० भाग ६ १० २९-'दी एज़ ऑफ गुरु अकलङ्क' लेख । (७) दी राष्ट्रकूटाज़० पृ. १२२ ।
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