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ग्रन्थकार अकलङ्क: तुलना
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मांस खाया जाय या नहीं इसमें भी विवाद है तो इस न्यायशास्त्रमें उसका भी लक्षण करना चाहिए । यदि मानस प्रत्यक्ष आगमप्रसिद्ध है; तो उसका लक्षण नहीं करना चाहिए था आदि । वादिराजने इन कारिकाओंको 'धर्मोत्तरस्त्वाह' लिखकर उसके खंडनपरक ही लगाया है। । अनन्तवीर्यने भी अकलङ्कके अनेक वाक्योंको धर्मोत्तरके खंडनपरक लगाया है। कर्णकगोमि और अकलङ्क
आ० धर्मकीर्तिने प्रमाणवार्तिकके स्वार्थानुमान परिच्छेदपर स्ववृत्ति रची है। इसकी टीका कर्णकगोमि आचार्यने लिखी हैं । इनका समय हमने ई० ८ वीं सदीका पूर्वभाग सूचित किया था। राहुलजीने प्रमाणवा० स्ववृ० टीकाकी प्रस्तावना (पृ० १२) में इन्हें ई० ९ वीं शताब्दीका विद्वान् माना है। उसका आधार है मण्डनमिश्रको ई० ९ वीं सदीका मानना । कर्णकगोमिने मण्डनमिश्रकी “आहुर्विधातृ प्रत्यक्षम्" कारिका 'तदुक्तं मण्डनेन' लिखकर उद्धृत की है तथा उसकी आलोचना भी की है । बृहती द्वि० भागकी प्रस्तावनामें मण्डनमिश्रका समय ई० ६७० से ७२० सूचित किया गया है तथा म० म० कुप्पुस्वामी शास्त्रीने अनेक प्रमाणोंसे ब्रह्मसिद्धिकी प्रस्तावनामें मण्डनका समय ई० ६१५ से ६९० सिद्ध किया है। यह निश्चित है कि मण्डनमिश्र कुमारिल और प्रभाकरके अनन्तर तथा धर्मकीर्तिके समकालीन हैं, अतः इनका समय ई० ७ वीं सदीके बाद कथमपि नहीं हो सकता। कर्णकगोमिने स्ववृत्तिटीका (पृ० १७३) में "अलङ्कार एवावस्तुत्वप्रतिपादनात्" लिखकर प्रज्ञाकरके वार्तिकालङ्कारका उल्लेख किया है । इसलिये इनकी पूर्वावधि प्रज्ञाकरका समय है और उत्तरावधि हमारे विचारसे अकलङ्कका समय है; क्योंकि अकलङ्कने कर्णकगोमिक मतका खण्डन किया है । अतः कर्णकगोमि ई० ७ वीं या अन्ततः ८ वीं पूर्वार्धके विद्वान हैं।
जब कुमारिल आदिने बौद्धसम्मत पक्षधर्मत्वरूप पर आक्षेप करते हुए कहा कि चन्द्रोदय आदि हेतु समुद्रवृद्धि आदि पक्षमें नहीं रहते तब पक्षधर्मत्व अव्यभिचारी कैसे ? तो इसका उत्तर कर्णकगोमिने प्र० वा० स्ववृ० टीकामें इस प्रकार दिया है कि कालको पक्ष मानकर पक्षधर्मत्व घटया जा सकता है।
__ अकलङ्कदेवने प्रमाणसंग्रह (पृ० १०४) में इसकी आलोचना करते हुए लिखा है कि-"कालादिधर्मिकल्पनायामतिप्रसङ्गः।” अर्थात् काल आदिको धर्मी माननेमें अतिप्रसङ्ग दोष होगा।
सिद्धिवि० टी० (पृ० १५८) में 'यथार्थरूपं बुद्ध वितथप्रतिभासनात्' इस कारिकाको 'कर्णक' के मतका निर्देश करनेके हेतु लगाया है और इसकी मूलवृत्ति में 'स्वरूपमन्तरेण विभ्रमप्रतिभासासंभवात्' इस अंशको 'कल्लकस्त्वाह' कहकर कर्णकका ही मत बताया गया है । यह कल्लक 'कर्णक' ही ज्ञात होता है। शान्तरक्षित और अकलङ्क
धर्मकीर्तिके टीकाकारों में शान्तरक्षित भी बड़े प्रखर विद्वान् थे । इनका वादन्यायकी टीकाके सिवाय तत्त्वसंग्रह नामका विशाल ग्रन्थ भी प्रकाशित हुआ है। इनका समय सन् ७०५-७६२ तक माना जाता है। इन्होंने सन् ७४३ में अपनी प्रथम तिब्बत यात्रा की थी। इसके पहिले ही वे अपना तत्त्वसंग्रह बना चुके होंगे। हम शान्तरक्षित और अकलङ्ककी तुलनाके लिये कुछ वाक्य देते हैं
(१) न्यायवि० वि० प्र० पृ० ५३० । (२) देखो-सिद्धिवि० टी० परि० ९ में धर्मोत्तरके नामके पृष्ठ ।
(३) अकलङ्कग्रन्थत्रय प्रस्ता० पृ. ३०। (४) ब्रह्मसिद्धि २।। (५) प्र. वा. स्ववृ० टी. पृ० १०९। (६) बृहती द्वि० भाग प्रस्ता० पृ. ३१। (७) ब्रह्मसिद्धि प्रस्तावना पृ०५८।
(6) “यद्येवं तत्कालसम्बन्धित्वमेव साध्यसाधनयोः। तदा च स एव कालो धर्मी तत्रैव च साध्यानुमानं चन्द्रोदयश्च तत्सम्बन्धीति कथमपक्षधर्मत्वम् ।"-प्र. वा. स्ववृ० टी० पृ. ११।
(९) विनयतोष भट्टाचार्य-तत्त्वसं० प्रस्ता० पृ० ९६ ।
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