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प्रस्तावनां
वैयाकरण दिग्नागके समकालीन थे और उनके गुरु वसुरात दिग्नागके गुरुवसुबन्धुके समकालीन । दिग्नागका समय ई० ४२५ के आसपास है । अतः भर्तृहरि ईसा की ५ वी सदी के पूर्वार्द्धके पूर्व के ही विद्वान् ठहरते हैं बादके नहीं ।
( ३ ) इसका एक साधक प्रमाण यह है कि नयचक्र के कर्ता मल्लवादीका परम्परागत समय वीरनिर्वाण ७८४ वि० संवत् ४१४ ई० ३५७ माना जाता है । इन्होंने अपने नयचक्रमें वसुरात और भर्तृहरिका नाम लेकर उनका मत तथा वाक्यपदीयकी कारिकाएँ उद्धृत' की हैं। अतः भर्तृहरिका समय भी ई० ४ थी सदीका उत्तरार्ध ही होना चाहिए ।"
मुनि श्री जम्बूविजयजीकी युक्तियाँ विचारणीय हैं और स्वीकरणीय हैं। इससे एक बहुत बड़ी भ्रान्तिका निवारण हो जाता है।
इसके पहिले प्रो० ब्रूनो लीविश और सी० कुन्हनराजने भर्तृहरिका समय ई० ४५० सिद्ध किया है, जो उपयुक्त है । ऐसी दशा में इत्सिंगके द्वारा निर्दिष्ट भर्तृहरि वैयाकरण भर्तृहरि नहीं है अपि तु कोई शून्यवादी दूसरा पंडित था जैसा कि इत्सिंगने स्वयं लिखा है
“इसके अनन्तर भर्तृहरि शास्त्र है यह पूर्वोल्लिखित चूर्णिकी टीका है और भर्तृहरि नाम के एक परम विद्वान्की रचना है । इसमें २५ हजार श्लोक हैं और इसमें मानव जीवन तथा व्याकरणशास्त्र के नियमों का पूर्णरूपसे वर्णन है । उसका तीन रत्नोंमें अगाध विश्वास था और इसमें वह दुहरे शून्यका बड़ी धुनसे ध्यान करता था । सर्वोत्कृष्ट धर्मके आलिङ्गनकी इच्छा से वह परिव्राजक हो गया, परन्तु सांसारिक वासनाओं के वशीभूत होकर वह फिर गृहस्थी में लौट गया । इसी रीतिसे वह सात बार परिव्राजक बना और सात ही बार फिर गृहस्थी में लौट गया । "वह धर्मपालका समकालीन था तब वह उपासककी अवस्था में वापस चला गया और मठमें रहते हुए एक श्वेत वस्त्र पहिनकर सच्चे धर्मकी उन्नति और वृद्धि करता रहा । उसकी मृत्यु हुए चालीस वर्ष हुए हैं। "
"इनके अतिरिक्त वाक्यपदीय है । इसमें ७०० श्लोक हैं और इसका टीका भाग ७००० श्लोकोंका है । यह भी भर्तृहरिकी ही रचना है । यह पवित्र शिक्षा के प्रमाणद्वारा समर्थित अनुमानपर और व्याप्तिनिश्चयकी युक्तियोंपर एक प्रबन्ध है । "
हमें यह लगता है कि पूर्वोक्त भर्तृहरि जिसने ७ बार परिव्राजक वेश छोड़ा और जो शून्यका अभ्यासी था, वह वाक्यपदीयकार वैदिक भर्तृहरि नहीं है, क्योंकि वाक्यपदीयमें नित्य शब्दब्रह्नाका समर्थन तथा संस्कृतेतर असाधु शब्दोच्चारणका निषेध किया गया है । पूर्वोक्त भर्तृहरिके वर्णन के बाद 'वाक्यपदीय' का वर्णन आया है। चूँकि यह समान नामक भर्तृहरिकी कृति है, अतः दोनों एक समझ लिये गये हैं, जब कि वाक्यपदीयकार भर्तृहरि दिग्नागके समकालीन थे । वे ई० ७ वीं के शून्यवादी भर्तृहरिसे निश्चयतः भिन्न हैं । इसने महाभाष्य पर २५ हजार श्लोक प्रमाण कोई टीका लिखी थी ।
मीमांसकधुरीण कुमारिलने भर्तृहरिके वाक्यपदीयसे अनेकों श्लोक उद्धृत कर उनकी समालोचना की है । यथा
“अस्त्यर्थः सर्वशब्दानामिति प्रत्याय्यलक्षणम् । अपूर्वदेवतास्वगैः
सममाहुर्गवादिषु ॥ " - वाक्यप० २२८१ ।
(१) नयच० पृ० १४७, २४२ ।
(२) मी० लो० ता० टी० प्रस्ता० पृ० १७ । क्षीरतरंगिणी प्रस्तावना ।
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(३) इसिगकी भारत० पृ० २७३ । (४) वही पृ० २७३ - २७५ । (६) वाक्यपदीय ( लाहौर संस्करण ) यही मत व्यक्त करते हैं और वे इसिगके उल्लेखको सन्दिग्ध मानते हैं ।
(५) वही पृ० २७६ ।
के संपादक पं० चारुदेव शास्त्री अपने उपोद्घात ( पृ० ३) में
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