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ग्रन्थकार अकलङ्क: तुलना
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धर्मकीर्तिके समकालीन ही सिद्ध होते हैं । हाँ, धर्मकीर्ति निश्चयतः वृद्ध थे और ये युवा रहे होंगे । अतः इनका समय ई० ६६० से ७२० तक मानना ठीक है। आगे अकलङ्ककी तुलनामें बताया जायगा कि इनके ग्रन्थोंको अकलङ्कने देखा है। इस तरह इनके उक्त समयका पूरा-पूरा समर्थन हो जाता है। ये प्र० वा० स्ववृत्तिके टीकाकार कर्णकगोमिसे पहिले हैं; क्योंकि कर्णकगोमिने "अलङ्कार एवावस्तुत्वप्रतिपादनात्" लिखकर' इनके प्रमाणवार्तिकालङ्कारका उल्लेख किया है।
प्रज्ञाकरगुप्त के कुछ अपने भी विचार थे जिनका ये स्वतन्त्र भावसे प्रतिपादन ही नहीं समर्थन भी करते थे
(१) ये सुषुप्त अवस्थामें ज्ञानकी सत्ता नहीं मानते थे। जाग्रत अवस्थाके ज्ञानको प्रबोधकालीन ज्ञानका उपादान मानकर अतीतको कारण मानना तथा भाविमरणको वर्तमान अपशकुनमें कारण मानना इनकी विशेषता थी। तात्पर्य यह कि अतीतकारणवाद और भाविकारणवाद दोनों ही प्रज्ञाकरके मत थे । ये मत वार्तिकालङ्कार (पृ० ६८) में इस प्रकार प्रतिपादित हैं
"अविद्यमानस्य करणमिति कोऽर्थः १ तदनन्तरभाविनी तस्य सत्ता । तदेतदानन्तर्यमुभयापेक्षयापि समानम् । यथैव भूतापेक्षया तथा भाव्यपेक्षयापि । न चानन्तर्यमेव तत्त्वे निबन्धनम्, व्यवहितस्यापि कारणत्वात् । तथाहि
गाढसुप्तस्य विज्ञानं प्रबोधे पूर्ववेदनात् ।
जायते व्यवधानेन कालेनेति विनिश्चितम् ॥"-प्र० वार्तिकाल । प्रमेयकमल मार्तण्डका "ननु प्रज्ञाकराभिप्रायेण भाविरोहिण्युदयकार्यतया..' यह उल्लेख इस बातका सबल प्रमाण है कि प्रज्ञाकर भाविकारणवादी थे। इसी तरह व्यवहितकारणवादके प्रसङ्गमें अनन्तवीर्यका यह लिखना कि-"इति प्रज्ञाकरगुप्तस्यैव मतं न थर्मोत्तरादीनामिति मन्यते।" प्रज्ञाकरके व्यवहितकारणवादीकी प्रसिद्धिका खासा प्रमाण है। प्रज्ञाकरके समकालीन धर्मोत्तर आदि तथा उत्तरकालीन शान्तरक्षित आदि इस मतसे सहमत नहीं थे।
(२) स्वप्नान्तिक शरीर मानना' । प्रज्ञाकर स्थूलशरीरके अतिरिक्त स्वप्नमें एक सूक्ष्मशरीर और भी मानते रहे हैं । उसीमें स्वप्न सम्बन्धी समस्त अर्थक्रियाएँ होती हैं । यथा
"यथा स्वप्नान्तिकः कायः त्रासलङ्घनधावनैः।
जाग्रद्देहविकारस्य तथा जन्मान्तरेष्वपि ॥" अनन्तवीर्य सिद्धिवि० टीका में “यस्तु प्रज्ञाकरः स्वप्नान्तिकशरीरवादी" लिखकर इनके स्वप्नान्तिकशरीरवादित्वका समर्थन करते हैं।
(३) पीतशंखादिज्ञानोंसे अर्थक्रिया नहीं होती अतः वे प्रमाण नहीं हैं, पर संस्थानमात्र अंशसे होनेवाली अर्थक्रिया तो उनसे भी हो सकती है अतः उस अंशमें उन्हें अनुमानरूपसे प्रमाण मानना चाहिए तथा अन्य अंशमें संशयरूप । इस तरह एक ज्ञानमें आंशिक प्रमाणता तथा आंशिक अप्रमाणता है_ "पीतशङ्खादिविज्ञानं तु न प्रमाणेव तथार्थक्रियाव्याप्तेरभावात् , संस्थानमात्रार्थक्रियाप्रसिद्धौ अन्यदेव ज्ञानं तथाहि
प्रतिभास एवम्भूतो यः न स संस्थानवर्जितः।
एवमन्यत्र दृष्टत्वाद् अनुमानं तथा च तत् ॥ ततोऽनुमानं संस्थाने संशयः परत्रेति प्रत्ययद्वयमेतत् प्रमाणमप्रमाणं च ।"
-प्र०वातिकाल० पृ०५ । (१) प्र० वा. स्व. वृ० टी० पृ० १७३ । (२) पृ० ३८० । (३) सिद्धिवि० टी० पृ० १९६। (४) प्र. वार्तिकाल० पृ० ५६ । (५)पृ० १६५ ।
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