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प्रस्तावना
शुद्ध कर दिया । दूसरे दिन जब गुरुने शुद्ध पाठ देखा तो उन्हें सन्देह हो गया कि कोई जैन यहाँ छिपकर पढ़ रहा है । इसकी खोजके सिलसिले में एक दिन गुरुने जैनमूर्तिको लाँघनेकी सब शिष्योंको आज्ञा दी । अकलङ्कदेव उस मूर्तिपर एक धागा डालकर उसे लाँघ गये और इस संकटसे त्राण पा गये । एक रात्रि गुरु अचानक काँसे के बर्तनोंसे भरे बोरेको छतपर गिराया। सभी शिष्य इस भीषण आवाजसे जाग गये और अपने इष्टदेवका स्मरण करने लगे । इस समय अकलङ्कके मुख से ‘णमो अरहंताणं' आदि पञ्च नमस्कार मन्त्र निकल पड़ा | बस दोनों भाई पकड़ लिये गये। दोनों भाई मठके ऊपरी मंजिलमें कैद कर दिये गये । दोनों एक छातेकी सहायतासे कूदकर भाग निकले। रास्ते में छोटे भाई निकलङ्कने बड़े भाई से प्रार्थना की कि आप एकसन्धि और महान् विद्वान् हैं, आपसे जिनशासनकी महती प्रभावना होगी, अतः आप इस तालाब में छिपकर अपने प्राण बचाइए, शीघ्रता कीजिए, समय नहीं है । वे हत्यारे हमें पकड़नेके लिये शीघ्र ही पीछे आ हैं। आखिर दुःखी चित्तसे अकलङ्कने तालाब में छिपकर अपनी प्राण रक्षा की । निकलङ्क आगे भागे । वहीं एक धोबीने निकलङ्कको भागता देखा । वह पीछे आते हुए घुड़सवारों को देख किसी अज्ञात भयकी आशंका से निकलङ्कके साथ ही भागने लगा । आखिर घुड़सवारोंने दोनों को तलवार के घाट उतारकर अपनी रक्तपिपासा शान्त की ।
एक बार वे कलिंग देश के रत्नसंचय पुर पहुँचे । वहाँके राजा हिमशीतलकी रानी मदनसुन्दरीने टाका पर्व पर जैन रथयात्रा निकलवानेका विचार किया । किन्तु बौद्धगुरु संघश्री के बहकावे में आकर राजाने रथयात्रा निकालनेकी यह शर्त रखी कि यदि कोई जैनगुरु बौद्धगुरुको शास्त्रार्थमें हरा दे तो ही जैन रथयात्रा निकल सकती है। रानी चिन्तित हुई । आखिर अकलङ्कदेव आये और हिमशीतलकी सभा में शास्त्रार्थ हुआ । संघश्री बीचमें परदा डालकर उसके पीछेसे शास्त्रार्थ करता था। छह माह हो गये पर किसीकी हार जीत नहीं हो पाई। एक दिन रात्रि के समय चक्रेश्वरी देवीने अकलङ्कको इसका रहस्य बताया कि परदे के पीछे घटमें स्थापित तारादेवी शास्त्रार्थ करती है । तुम उससे प्रातःकाल कहे गये वाक्योंको दुबारा पूँछना, इतने से ही उसका पराजय हो जायगा । अगले दिन अकलङ्कने चक्रेश्वरी देवीकी सम्मति के अनुसार प्रातः कहे गये वाक्योंको फिर दुहराने को कहा तो उत्तर नहीं मिला। उन्होंने तुरन्त परदा खींच कर घड़ेको पैरकी ठोकर से फोड़ star | इससे जैनधर्मकी प्रभावना हुई और रानीके द्वारा संकल्पित रथयात्रा धूमधाम से निकाली गई । "
राजावलीकथे तथा दूसरी कई कथाओंके आधारसे राइस सा०ने अकलङ्कदेवका वृत्तान्त इस प्रकार दिया है - जिस समय काञ्चीमें बौद्धोंने जैनधर्मकी प्रगतिको रोक दिया था उस समय जिनदास नामके जैन ब्राह्मणके यहाँ उनकी जनमती स्त्रीसे अकलङ्क और निकलङ्क नामके दो पुत्र हुए। वहाँ उनके सम्प्रदायका पढ़ानेवाला कोई गुरु नहीं था इसलिये इन दोनों बालकोंने गुप्तरीतिसे भगवद्दासके नामके बौद्ध गुरुसे पढ़ना शुरू किया | भगवद्दास के मठमें रहकर दोनों भाइयोंने असाधारण शीघ्रता से उन्नति की । गुरुको इनकी इस प्रतिभासे सन्देह हो गया कि ये कौन हैं ? अतः एक रात्रिमें सोते समय इनकी छातीपर बुद्धका दाँत रख दिया । इससे वे बालक जिन सिद्ध कहते हुए जागे तो गुरुने जाना कि वे जैन हैं। दूसरी कथाके आधारपर
अलग हुए तो एक हस्तलिखित पुस्तकमें
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उन बालकोंने एक दिन जब कि गुरु कुछ क्षणों के लिये उनसे उन्होंने "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः " लिख दिया गुरुको इसकी छानबीन करनेसे ज्ञात हुआ कि वे जैन हैं । आखिर इन्हें मारनेका निश्चय किया गया और वे दोनों भाग निकले। निकलङ्कने अपना पकड़ा जाना और मारा जाना उचित माना जिससे उसके भाईको भागनेका अवसर मिल सके । अकलङ्क एक धोबीके कपड़ोंकी गठड़ी में छिपकर बच गये और दीक्षा लेकर उन्होंने सुधापुरके देशीय गणके आचार्यका पद सुशोभित किया
(१) जैन हितैषी भाग ११ अङ्क ७-८ में प्रकाशित 'भट्टाकलङ्क' शीर्षक लेख, न्यायकुमुदचन्द्र प्र०
भाग प्रस्ता० पृ० २८ ।
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