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२ ग्रन्थकार
[१ श्रीमद् भट्टाकलङ्कदेव ] श्रीमद्भटाकलङ्कदेव जैन न्यायके प्रतिष्ठापक पदपर प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने समन्तभद्र और सिद्धसेनसे प्राप्त भूमिकापर प्राचीन आगमिक शब्दों और परिभाषाओंको दार्शनिक रूप देकर अकलङ्क न्यायका प्रस्थापन किया है। जैन आगमिंक परम्परामें प्रमाणकी चरचा यद्यपि मिलती है पर उसकी व्यवस्थित परिभाषाएँ ओर भेद-प्रभेदकी रचना करनेका बहुत बड़ा श्रेय भट्टाकलङ्कदेवको है । बौद्धदर्शनमें धर्मकीर्ति, मीमांसा दर्शनमें भट्टकुमारिल, प्रभाकर दर्शनमें प्रभाकर मिश्र, न्यायवैशेषिकमें उद्योतकर और व्योमशिव तथा वेदान्तमें शंकराचार्यका जो स्थान है वही जैन न्यायमें भट्ट अकलङ्कका है । ईसाको ७ वी ८ वी ओर ९ वीं शताब्दियाँ मध्यकालीन दार्शनिक इतिहासकी क्रान्तिपूर्ण शताब्दियाँ थीं । इनमें प्रत्येक दर्शनने जहाँ स्वदर्शनकी किलेबन्दी की वहाँ परदर्शन पर विजय पानेका अभियान भी किया। इन शताब्दियोंमें बड़े-बड़े शास्त्रार्थ हुए, उद्भट वादियोंने अपने पाण्डित्यका डिंडिम नाद किया तथा दर्शनप्रभावना और तत्त्वाध्यवसाय संरक्षणके लिये राज्याश्रय प्राप्त करनेके हेतु वाद रोपे गये । इस युगके ग्रन्थों में स्वसिद्धान्त-प्रतिपादनकी अपेक्षा परपक्ष के खण्डनका भाग ही प्रमुखरूपसे रहा है । इसी युगमें महावादी भट्टाकलङ्कने जैनन्यायकै अभेद्य दुर्गका निर्माण किया था । उनकी यशोगाथा शिलालेखों और ग्रन्थकारोंके उल्लेखोंमें विखरी पड़ी है।
शिलालेखोल्लेखभट्टाकलङ्कदेव इतने प्रसिद्ध और युगप्रधान आचार्य हुए कि इनकी प्रशंसा स्तुति और इलाघा अनेक शिलालेखों में उत्कीर्ण है। उनके प्रमाण संग्रहका मङ्गलाचरण तो इतना लोकप्रिय हुआ कि वह पचासों शिलालेखोंमें मङ्गल श्लोकके रूपसे उत्कीर्ण हुआ है । उनका यशोगान करनेवाले कुछ शिलालेख इस प्रकार हैं
(१) कडवन्निमें लुकडवन्तिकी चट्टानपर उत्कीर्ण भग्न कन्नड लेखमें देवगणके अकलङ्क भट्टारके शिष्य महीदेव भट्टार बताये गये हैं । यह लेख सम्भवतः ई० १०६० का है।
(२) बन्दलिमें एक पाषाण लेखमें अकलङ्कदेव गुरुको नमस्कार किया है । संस्कृत कन्नड भाषाका यह भग्न लेख शक सं० ९९६ ई० १०७४ का है।
(३) बलगाम्बे बडगियर होण्डके पास एक पाषाणपर उत्कीर्ण लेखमें रामसेनकी प्रशंसामें 'तर्कशास्त्रदविवेकदोळिन्तकलङ्कदेवरेम्बुदु' कहा है । यह लेख ई० १०७७ का है ।
(6) "श्रीमत्परमगम्भीरस्याद्वादामोघलान्छनम् । ___ जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥” -प्रमाण सं० पृ. १ ।
(२) देखो- जैनशि० प्र० भाग लेख नं. ३९, ४२, ४३, ४४, ४५, ४८, ५१, ५२, ५३, ५५, ५९, ६८, ८१, ८२, ८३, ९०, ९६, १०५, १११, ११३, १२४, १३०, १३७, १३८, १४१, १४४, २२१, ३६२, ४८६, ४९३-४९५, ४९६, ४९९, ५०० इत्यादि ।
(३) जैनशि० द्वि० पृ० २३४, लेख नं० १९३ । ए० क. भाग ६ नं. ७५ । (४) जैनशि० द्वि० पृ० २६३, लेख नं० २०७ । ए० क० भाग ७ शिकारपुर ता. नं० २२१ । (५) जैनशि० द्वि० पृ. ३११, लेख नं० २१७ । ए० क. भाग ७ शिकारपुर ता० नं० १२४ ।
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