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बौद्ध वाङ्मय में मङ्गल की अवधारणा
अपमान में, निन्दा - प्रशंसा में कभी विचलित नहीं होता है, वह शान्त, धीर तथा निरावेग होता है
सेलो यथा एकघनो, वातेन न समीरति ।
एवं निन्दा - पसांसु न समिञ्जन्ति पण्डिता ।। ( धम्मपद ८१ ) पण्डित गंभीर जलाशय के समान स्वच्छ और निर्मल होता है, वह धर्म को सुनकर विप्रसन्न होता है
यथापि रहदो गम्भीरो विप्पसन्नो अनाविलो ।
एवं धम्मानि सुत्वान विप्पसीदन्ति पण्डिता ।। (धम्मपद ८२) अकित्तिजातक में अकित्ति ने शक्र से वर माँगा वह धीर (ज्ञानी) को देखे, उसकी बात सुने, उसके साथ निवास करे, उसके साथ आलाप-संलाप करे और उसी की बात में अभिरुचि रखे। उसके लिए सत्कर्म अच्छा होता है, उचित बात करने पर वह क्रोध नहीं करता है। वह विनय ( शील) को जानता है, अतः उसके साथ समागम अच्छा है—
धीरं पस्से सुणे धीरं, धीरेन सह संवसे । धीरेनल्लापसंलापं तं करे तञ्च रोचये || नयं नयति मेधावी, अधुरायं न युञ्जति । सुनयो सेय्यसो होति, सम्मा वुत्तो न कुप्पति ।। विनयं सो पजानाति, साधु तेन समागमो ||
( अकित्तिजातक २५९)
इस प्रकार भगवान् बुद्ध के अनुसार पण्डितों की पर्युपासना और उनका साहचर्य उत्तम मङ्गल है, क्योंकि उनके साहचर्य से वृत्ति सन्मार्गगामिनी होती है और अभ्युदय एवं नैश्रेयस् का अधिगम होता है ।
३. पूजा च पूजनीयानं
पूजनीय जनों की पूजा, अभ्यर्चा उत्तम मङ्गल है। पूजा का अर्थ हैसम्मान, पूजन, अभ्यर्चन, भक्त्यात्मक अवधानता, सत्कार, गौरवभाव प्रदर्शन (सक्कारगरुकारमानन वन्दना ) । पूजनीय का अर्थ है - सम्मान के योग्य पुदगल, आदर के योग्य व्यक्ति ( पूजनीय पुग्गल ) । पूजनीय पुद्गल हैं - प्रत्येक बुद्ध
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