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अनन्त अर्थ के अवगम के कारणभूत अनेक लिंगों से सहित होता है उनका नाम बीजपद है। इस प्रकार यहाँ गणधर देव को ग्रन्थकर्ता बतलाते हुए उसकी अनेक विशेषताओं को प्रकट किया गया है । यह सामान्य से अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा की गई है।' ___आगे वर्धमान जिन के तीर्थ में विशेष रूप से ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा करते हुए यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि सौधर्म इन्द्र जब पांच-पांच सौ अन्तेवासियों से वेष्टित ऐसे तीन भाइयों से संयुक्त गौतमगोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण के पास पहुंचा तब उसने उसके सामने जैन पारिभाषिक शन्दों से निर्मित
पंचेव अस्थिकाया छज्जीवनिकाया महव्वया पंच ।
अट्ठ य पवयणमादा सहेउओ बंध-मोक्खो य ।। - इस गाथा को उपस्थित करते हुए उसके आशय के विषय में प्रश्न किया। इसपर सन्देह में पड़कर जब वह उसका उत्तर न दे सका तब उससे उसने अपने गुरु के पास चलने को कहा। यही तो सौधर्म इन्द्र को अभीष्ट था। इस प्रकार जब वह वर्धमान जिनेन्द्र के समवसरण में पहुंचा तब वहाँ स्थित मानस्तम्भ के देखते ही उसका समस्त अभिमान गलित हो गया व उसकी विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ने लगी। तब उसने भगवान् जिनेन्द्र की तीन प्रदक्षिणा देकर उनकी वन्दना की व जिनेन्द्र का ध्यान करते हुए संयम को ग्रहण कर लिया। उसी समय विशुद्धि के बल से उसके अन्तर्मुहर्त में हो समस्त गणधर के लक्षण प्रकट हो गये। इस प्रकार प्रमुख गणधर के पद पर प्रतिष्ठित होकर उस इन्द्रभूति ब्राह्मण ने आचारादि बारह अंगों
और सामायिक-चतुविंशतिस्तव आदि चौदह अंगबाह्य स्वरूप प्रकीर्णकों की रचना कर दी। उस दिन श्रावण मास के कृष्णपक्ष की प्रतिपदा थी, जिसे युग का आदि दिवस माना जाता है । इस प्रकार वर्धमान जिनेन्द्र के तीर्थ में इन्द्रभूति भट्टारक ग्रन्थकर्ता हुए।
उत्तरोत्तर-तन्त्रकर्ता
इस प्रकार यहाँ अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता की प्ररूपणा के पश्चात् उत्तरोत्तरतन्त्रकर्ता की प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के पिछले भाग में महावीर जिन के मुक्त हो जाने पर, केवलज्ञान की सन्तान के धारक गौतम स्वामी हुए। बारह वर्ष केवलिविहार से विहार करके उनके मुक्त हो जाने पर लोहार्य उस केवलज्ञान का सन्तान के धारक हुए । बारह वर्ष केवलिविहार से विहार करके लोहार्य भट्टारक के मुक्त हो
१. धवला पु० ६, पृ० १२६-१२८ २. धवला पु० ६, पृ० १२६-१३० ३. 'लोहार्य' यह सुधर्म का दूसरा नाम रहा है। इस नाम का उल्लेख स्वयं धवलाकार ने
भी जयधवला (. .) में किया है । हरिवंशपुराण (३-४२) में पाँचवें गणधर का उल्लेख सुधर्म नाम से किया गया है। जंबूदीवपण्णत्ती में स्पष्ट रूप से लोहार्य का दूसरा नाम सुधर्म कहा गया है--
तेण वि लोहज्जस्स य लोहज्जेण य सुधम्मणामेण । गणधरसुधम्मणा खलु जंबूणामस्स णिद्दिठं ।।
-जं० दी० प० १-१०
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