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हुआ था।
अर्थकर्ता
धवलाकार ने श्रुतधरों की परम्परा का उल्लेख जिस प्रकार सत्प्ररूपणा में किया है, लगभग उसी प्रकार से उन्होंने आगे चलकर वेदनाखण्ड के अन्तर्गत कृति अनुयोगद्वार में भी उक्त श्रुतपम्परा की प्ररूपणा पुनः कुछ विस्तार से की है। इसमें अनेक विशेषताएँ भी देखी जाती हैं । यथा
सत्प्ररूपणा के समान यहाँ भी कर्ता के दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं-अर्थकर्ता और ग्रन्थकर्ता । इनमें अर्थकर्ता महावीर की यहाँ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से प्ररूपणा की गयी है। उनमें द्रव्य की अपेक्षा से भगवान महावीर के शरीर की विशेषता अनेक महत्त्वपूर्ण विशेषताओं के आश्रय से प्रकट की गयी है व उनमें प्रत्येक की सार्थकता को प्रकट करते हुए उसे ग्रन्थ की प्रमाणता में उपयोगी कहा गया है। जैसे 'निरायुध' यह विशेषण भगवान् वीर जिनेन्द्र के क्रोध, मान, माया, लोभ, जन्म, जरा, मरण, भय और हिंसा का अभाव का सूचक है, जो ग्रन्थ की प्रमाणता का कारण है।
क्षेत्र की अपेक्षा प्ररूपणा करते हुए कहा गया है, कि पंचशैलपुर (राजगृह) की नैऋत्य दिशा में स्थित विपुलाचल पर्वत पर विराजमान समवसरण-मण्डल में अवस्थित गन्धकुटी रूप प्रासाद में स्थित सिंहासन पर आरूढ वर्धमान भट्टारक ने तीर्थ को उत्पन्न किया।
इस क्षेत्रप्ररूपणा को यहाँ वर्धमान भगवान की सर्वज्ञता का हेतु कहा गया है। यहाँ शंका उठाई गयी है कि जिन जीवों ने जिनेन्द्र के शरीर की महिमा को देखा है उन्हीं के लिए वह जिन की सर्वज्ञता का हेतु हो सकती है, न कि शेष सबके लिए? इस शंका के समाधान स्वरूप जिन-रूपता के ज्ञापनार्थ यहाँ आगे भाव-प्ररूपणा की गयी है।
इस भावप्ररूपणा में सर्वप्रथम दार्शनिक पद्धति से जीव की जड़स्वभावता का निराकरण करते हुए उसे सचेतन व ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव वाला सिद्ध किया गया है।
तत्पश्चात् कर्मों की नित्यता व निष्कारणता का निराकरण करते हुए उनके मिथ्यात्व, असंयम व कषाय इन कारणों को सिद्ध किया गया है तथा उन मिथ्यात्वादि के प्रतिपक्षभूत सम्यक्त्व, संयम और कषायों के अभाव को उन कर्मों के क्षय का कारण कहा गया है। इस प्रकार से जीव को केवलज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञानी, केवलदर्शनावरण के क्षय से केवलदर्शनी, मोहनीय के क्षय से वीतराग और अन्तराय के क्षय से विघ्नविजित अनन्त बलवाला सिद्ध किया है।
आगे पूर्व प्ररूपित द्रव्य, क्षेत्र और भाव प्ररूपणा के संस्कारार्थ कालप्ररूपणा की आवश्यकता
१. भूदबलिभयपदा जिणवालिद पासे दिट्ट वीसदिसुत्तेण अप्पाउओ त्ति अवगयजिण___वालिदेण -धवला पु० १, पृ०७१ २. धवला पु० ६, पृ० १०७-१०६ ३. वही, पृ० १०६-११३ ४. वही, पु०६, पृ० ११३-११७ ५. वही पृ० ११७-११८
षट्खण्डागम : पीठिका ७
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