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प्रश्नव्याकरण सूत्र श्रु०१ अ० १
चलाने के लिए करते हैं। कई सुख-सुविधा के लिए और कई सार्वजनिक उपयोग के लिए करते हैं। इनमें कुछ कार्य ऐसे भी हैं कि जो धर्म समझकर किये जाते हैं। __पुष्करणी - वह चौकोन जलाशय, जिसमें कमल खिले हों।
विहार - बौद्ध साधुओं के ठहरने का स्थान। स्वाध्याय-भूमि को भी आगमों में 'विहार-भूमि' बतलाया है, किन्तु उसका यहाँ सम्बन्ध नहीं है, क्योंकि वह स्वाभाविक भूमि होती है। उसको बनाने
और हिंसा करने की आवश्यकता नहीं होती। मध्यकाल में जैन-विहार भी बने। उनका समावेश इस पद में हो सकता है।
स्तूभ - मृतक के दाह-स्थान पर बनाई हुई छत्री, स्मारक-स्तंभ, चबूतरा आदि। चैत्य - व्यन्तरायतन, उद्यान, प्रतिष्ठित वृक्ष, यज्ञस्थान, मंदिर, मूर्ति, स्मारक वृक्ष आदि।
पृथ्वीकाय की हिंसा के साथ अन्य स्थावर तथा त्रस जीवों की भी हिंसा होती है। किन्तु यहाँ . मुख्यता पृथ्वीकाय की ही है, इसलिए उसी का वर्णन किया गया है।
हिंसा आजीविका के लिए हो या सुख-सुविधा के लिए, वह हिंसा ही है, पाप ही है, फिर भले ही वह सार्थक हो, निरर्थक हो या धर्म के नाम पर हो। उन जीवों की हिंसा तो होती ही है। यदि ऐसी हिंसा को भी धर्म माना जाय तो वह बुद्धिहीनता है।
• अप्काय की हिंसा के कारण जलं च मजण-पाण-भोयण-वत्थधोवण-सोयमाइएहिं।
शब्दार्थ - मजण:- स्नान, पाण - पीने, भोयण - भोजन के, वत्यमोवण - वस्त्र धोने में, सोयमाइएहि - शौच आदि कार्यों में, जलं - पानी के जीवों की हिंसा होती है।
भावार्थ - अप्काय जीवों की हिंसा-स्नान करने, पानी पीने, भोजन बनाने, वस्त्र धोने और शूचि करने आदि कार्यों में की जाती है।
. विवेचन - अप्काय के जीवों की हिंसा के कुछ प्रकार इस सूत्र में बताए है। इसके अतिरिक्त का प्रकार पृथ्वीकाप की विराधना के कारणों में आ जाते हैं। घर-भवनादि बनाने में पृथ्वीकाप के साथ अपकाय की भी आवश्यकता होती ही है। इसके अतिरिक्त रोष कारणों का समावेश आदि शब्द से कर लेना चाहिए।
तेजस्काय की विराधना के कारण पयण-पयावण-जलावण-विदसणेहिं अगणिं।
शब्दार्थ - पयणपयावण - भोजनादि पकाने व दूसरे से पकवाने, जलावण - दीपकादि जलाने, विदंसणेहि - प्रकाश के लिए, अगणिं - अग्निकाय के जीवों की हिंसा की जाती है।
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