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पृथ्वीकाय की हिंसा के कारण
र-तलाग - चिइ-वेइय
किं ते? करिसण- पोक्खरणी - वाविवप्पिणि- कूव-सरखाइय- आराम - विहार- थूम - पागार-दार - गोउर- अट्टालग - चरिया - सेउ-संकम-पासायविकप्प-भवण-घर-सरण - लयण - आवण- चेइय- देवकुल-चित्त-सभा-पवाआयतणा-वसह-भूमिघर - मंडवाण कए भायणभंडोवगरणस्स य विविहस्स य अट्ठाए पुढविं हिंसंति मंदबुद्धिया ।
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शब्दार्थ - किं ते - वे कारण कौन से हैं ?, करिसण - कृषि, पोक्खरणी पुष्करणी, वावि बावड़ी, वप्पिणि- क्यारी, कूव कुआँ, सर छोटा सरोवर, तलाग - तालाब, चिइ - भींत, बेइय वेदी, खाइय - खाई, आराम बगीचा, विहार मठ, थूभ स्तूभ, पागार प्राकार-परकोटा, दारद्वार, गोउर - नगर-द्वार, अट्टालग अटारी, चरिया चरिका- नगर और कोट के बीच का मार्ग, सेतु - पुल, संकम - ऊँची-नीची भूमि को पार करने का मार्ग, पासाय
प्रासाद- राजभवन, विकप्प
भवन की ही तरह का छोटा प्रासाद, भवण भवन, घर मकान, सरण - फूस की झोंपड़ी, लयण - पर्वत खोदकर बनाये हुए आवास, आवण दुकान, चेइय - चैत्य- प्रतिमा आदि, देवकुल देवमंदिर, चित्तसभा - चित्र - सभा, पवा प्याऊ, आयतण देव- स्थान, आवसह - तापसों का आश्रम, भूमिघर - भूमिगृह - तलघर, मंडवाण मंडप, कए - इन सबके बनाने आदि में, य - और, विविहस्सविविध प्रकार के, भायणभंडोवरगरणस्स - भाजन-पात्र बर्तन और उपकरण बनाने के, अट्ठाए अर्थ-लिए, मंदबुद्धिया - जिनकी बुद्धि आत्महित सोचने में मन्द है, ऐसे अज्ञानी जीव, पुढवि - पृथ्वीकाय की, हिंसंति - हिंसा करते हैं ।
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पृथ्वीकाय की हिंसा के कारण
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भावार्थ - प्रश्न - पृथ्वीकाय की हिंसा किस प्रयोजन से की जाती है ?
उत्तर
खेती करने के लिए, पुष्पकरणी, बावडी, क्यारियाँ, कुआँ, सरोवर, तालाब आदि जलाशय बनाने के लिए, भींत, वेदिका, खाई, बगीचा, साधुओं के ठहरने का मठ, स्तुभ, प्राकार, द्वार, गोपुर, अट्टालिका, चरिका, सेतु, संक्रम, प्रासाद, भवन, घर, झोंपड़ी, पर्वतगृह, दुकान, चैत्य, देवमंदिर, चित्र सभा, प्याऊ, आयतन, आश्रम, भूमिगृह और मण्डप आदि के लिए, भाजन, बरतन आदि विविध प्रकार के कार्यों के लिए मन्दबुद्धि वाले जीव पृथ्वीकाय की हिंसा करते हैं ।
विवेचन उपरोक्त सूत्र में उस हिंसा के कुछ भेद बतलाये हैं कि जिसमें पृथ्वीकाय की हिंसा मुख्यता से होती है। उपरोक्त वर्णन में कई ऐसे कार्यों का उल्लेख है जिन्हें मनुष्य अपनी आजीविका
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• श्री ज्ञानविमलसूरि रचित वृत्ति में 'वेइय' के स्थान पर 'चेतिय' शब्द है, जिसका अर्थ किया है - 'चेति मृतदहनार्थ काष्ठस्थापनं ।'
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