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प्रमेय कमलमार्त्तण्ड
सन्थोंमें अपना एक विशिष्ट स्थान रखती है । प्रमाणमीमांसाके निग्रहस्थानके निरूपण और खंडनके समूचे प्रकरण में तथा अनेकान्तमें दिए गए आठ दोषोंके परिहारके प्रसंग में प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्त्तण्डका शब्दशः अनुसरण किया गया है । प्रमाणमीमांसा के अन्य स्थलोंमें प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्त्तण्डकी छाप साक्षात् न पड़कर प्रमेयरत्नमाला के द्वारा पड़ी है । प्रमेयरत्नमालाकार अनन्तवीर्य ने 'प्रमेयकमलमार्त्तण्डको ही संक्षिप्त कर प्रमेयरत्नमालाकी रचना की है । अतः मध्यकदवाली प्रमाणमीमांसा में बृहत्काय प्रमेयकमलमार्त्तण्डका सीधा अनुसरण न होकर अपने समान परिमाणवाली प्रमेयरत्नमालाका अनुसरण होना ही अधिक संगत मालूम होता है । प्रमाणमीमांसाके प्रायः प्रत्येक प्रकरण पर प्रमेयरत्नमालाकी शब्दरचनाने अपनी स्पष्ट छाप लगाई है । इस तरह आ० हेमचन्द्र कहीं साक्षात् और कहीं परम्परया प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्त्तण्डको अपनी प्रमा णमीमांसा बनाते समय मद्देनज़र रखा है । प्रमेयरत्नमाला और प्रमाणमीमांसाके स्थलोंकी तुलना के लिए सिंघी सीरिजसे प्रकाशित प्रमाणमीमांसाके भाषा टिप्पण देखना चाहिए ।
मलयगिरि और प्रभाचन्द्र - विक्रमकी १२ वीं शताब्दीका उत्तरार्धं तथा तेरहवीं शताब्दीका प्रारम्भ जैनसाहित्यका हेमयुग कहा जाता है । इस युगमें आ• हेमचन्द्र के सहविहारी, प्रख्यात टीकाकार आचार्य मलयगिरि हुए थे । मल-यगिरिने आवश्यकनिर्युक्ति, ओघनिर्युक्ति, नन्दीसूत्र आदि अनेकों आगमिकप्रन्थों पर संस्कृत टीकाएँ लिखीं हैं । आवश्यकनिर्युक्तिकी टीका ( पृ० ३७१ A. ) में वे अकलङ्कदेवके 'नयवाक्यमें भी स्यात्पदका प्रयोग करना चाहिए' इस मतसे असहमति जाहिर करते हैं । इसी प्रसंगमें वे पूर्वपक्षरूपसे लघीयस्त्रयस्वविवृति (का० ६२ ) का 'नयोऽपि तथैव सम्यगेकान्तविषयः स्यात् यह वाक्य उद्धृत करते हैं । और इस वाक्यके साथ ही साथ प्रभाचन्द्रकृत न्यायकुमुदचन्द्र ( पृ० ६९१ ) से उक्त वाक्यकी व्याख्या भी उद्धृत करते हैं । व्याख्याका उद्धरण इस प्रकारसे लिया गया है- "अत्र टीकाकारेण व्याख्या कृता नयोऽपि नयप्रतिपादकमपि वाक्यं न केवलं प्रमाणवाक्यमित्यपिशब्दार्थः, तथैव स्यात्पदप्रयोगप्रकारेणैव सम्यगेकान्तृविषयः स्यात्, यथा स्यादस्त्येव जीव इति स्यात्पदप्रयोगाभावे तु मिथ्यैकान्तगोचरतया दुर्नय एव स्यादिति ।" - इस अवतरणसे यह निश्चित हो जाता है कि मलयगिरिके सामने लघीयस्त्रयकी न्यायकुमुदचन्द्र नामकी व्याख्या थी ।
अकलङ्कदेवने प्रमाण, नय और दुर्नयकी निम्नलिखित परिभाषाएँ की हैं -अनतधर्मात्मक वस्तुको अखंडभावसे ग्रहण करनेवाला ज्ञान प्रमाण है । एकधर्मको मुख्य तथा अन्यधर्मो को गौण करनेवाला, उनकी अपेक्षा रखनेवाला ज्ञान नय है ! एकधर्मको ही ग्रहण करके जो अन्य धर्मोका निषेध करता है-उनकी अपेक्षा नहीं रखता वह दुर्नय कहलाता है । अकलंकने प्रमाणवाक्यकी तरह नयवाक्यमें भी नयान्तरसापेक्षता दिखानेके लिए 'स्यात्' पदके प्रयोगका विधान किया है ।
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