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उसे पट्टमहादेवीजी के साथ ही करना चाहिए. यह राजमहल की परम्परा रही है।"
आगमशास्त्रियों के कहने का कुछ लोग अनुमोदन करना चाहते थे, पर उदयादित्य की बात सुनकर चुप हो गये।
''+I/ . Bird !!" सर्ग - परंगदाग में पूछा।
'' 11.... .... .. ... . . . 47. Ti -16 करनी चाहिए। ये लोग हमें बेवकूफ बना देंगे। वह चाण्डाल...हमें क्या मालूम था कि वह फिया था। वह आकर हमारे सामने गिड़गिड़ाया। बताया कि तकलीफ में है। मुझं भी दया आ गयौं । यह गैर पीछे पीछे घूमता रहा। इतने से ही उसने मुझे इसमें लपेट लिया है। आगमशास्त्री हैं, सन्निधान हैं।" तिरुवरंगदास ने अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाही। उसके कहने के ढंग से मालूम होता था कि वह वहाँ से छुटकारा पा जाए तो काफी है।
तभी उदयादित्य बोले, ''धर्मदर्शीजी, राजमहल की रीति-नीति से आपका कोई विरोध नहीं है न? हम यही मान सकते हैं न?''
___ "राजमहल की परम्परा का विरोध करनेवाला मैं कौन हूँ?" तिरुवरंगदास ने अनमने भाव से अपनी सम्पति दी।
"आगमशास्त्रियों की च्या राय है?'' उदयादित्य ने उनको ओर देखः ।
"राजधानी का वातावरण कुछ दुष्ट हवा के कारण कलुषित हुआ है। इसलिए दिल खोलकर बात करते मन पीछे हटता है। हम प्रधानतया श्रीआचार्य के दास हैं, 'सेवक हैं । उनके आदेश के अनुसार चलनवाले हैं। इसलिए हमारंः राय है कि आचार्यज की जो ठीक लगे वहो करना उचित है। पट्टमहादेवी जैसी महासाध्वी की विशाल शामिकता को जो सपझते हैं, वे यहीं कहेंगे कि उनके निर्दश में सम्पन्न होनेवाले कार्य पवित्र ही होंगे। श्री आचार्यजी के लिए तो वं पत्रों के समान हैं। इसलिए अन्य मतीय होने पर भी पद्महादेवी का स्थान महाराज के सभी तरह के सेवाकार्यों में अग्रणी होना चाहिए। यह न्यायसम्मत, धर्मसपत और अन्चारमगत भी है । ऐसी स्थिति में राजमहल को परम्परा का विरोध हो ही नहीं सकता, यह स्पष्ट है। पट्टमहादेव जी यदि वैष्णव मतानुयारी हुई होती तो वह बहुत उत्तम होता। लेकिन राजमहल को परम्परा हगांग लिए स्वीकार्य है।" आगमशास्त्रियों ने अपनी राय विस्तार में बता दी।
"टोक, अब बात एक तरह से राय हो गयी। अब उसी के अनुसार कार्य चले। इन एता की बात को लेकर लोगों को भड़काने वालों ने कुछ प्रतिष्ठित जनों के बार में मनमानी बातें की हैं. यह सुनने में आग है। उनके चरित्र के सम्बन्ध में भी इन लोगों ने चचा चलायी है । स्वार्थियों की यही गैति है। लोगों के मन में शंका पैदा करके व अपने कार्य को मुगमता से मार सकेंगे, यही विचार कर वे ऐमा करते हैं। पहले एक बार बलिपुर में किन्हीं कारणों के चालुक्य पिरियरसी चन्दल देवी जी को पट्टमहादेवी
27 :: पट्टमादेवी शान्तला : भा। मगर