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"अब इसके उस दुशाले को हटाओ।" दुशाला हटाया गया। "जनेऊ कहाँ है?" उसने सिर झुका लिया। "अब कहो, तुम कौन हो?" "नहीं कहूँगा।" "इससे तुमको ही कष्ट होगा।" "इसके लिए मेरी बलि ही क्यों न हो जाए. मैं डरता नहीं।"
"यहाँ उसके लिए गुंजाइश नहीं । तुम खुद बता दो तो ठीक है। नहीं तो हमें मालूम है कि कैसे कहलवाना है।"
"मेरे प्राण ही जाएँगे, कोई चिन्ता नहीं। मैं अपने मालिक से द्रोह नहीं कर सकता।"
"तुम्हारी मर्जी। तुम उच्चंगी के पाण्ड्य के खुफिया हो। तुम्हारा नाम चोक्कणा
वह जोर से हँस पड़ा। "क्यों, हँसते क्यों हो?"
"और क्या करूँ ? राज्य चलानेवाले ऐसे निपुण होकर भी दूध का दूध और पानी का पानी भी नहीं कर सकते?"
"पिछली घटना शायद तुम भूल गये। हमारी चट्टलदेवी गवाही देकर यह स्पष्ट कर सकती है कि तुम वहीं बोक्कणा हो।"
"चट्टल-वट्टल को मैं नहीं जानता।" "चाविमय्या, चट्टलदेवी को बुलयाओ।"
चट्टलदेवी आयी। उसने झुककर महाराज को प्रणाम किया। उसे देखते हो केशवाचारी निस्तेज होकर पीला पड़ गया।
'इसे जानती हो तुम?"
"इसका नाम?" "चोक्कणा।" "इसे तुमने कहाँ देखा?"
"युद्ध-शिविर में जब जग्गदेव ने हम पर हमला किया था, तब यह उनके गुप्तचर दल में शामिल था। बताया कि उच्चंगी के पाण्ड्यों का खुफिया है। इसे एक सप्ताह पहले यादवपुरी के लक्ष्मीनारायण मन्दिर के धर्मदशी के साथ देखा तो मुझे आश्चर्य हुआ। यह समझकर कि बहुत ऊँचे स्तर पर गुप्तचरी हो रही है, मैंने सन्निधान से निवेदन किया। इसके चाल-चलन पर चाविमय्या ने नजर रखी थी। शेष सभी बातें
219 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार