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जैन प्रजा की हैसियत से कहना चाहती हूँ। इसके लिए मुझे अनुमति प्रदान करें।'' बात को रोककर, इशारे से अनुमति मिलने पर, आगे कहने लगी, "अब राजधानी में प्रकट बातों के अनुसार, महासन्निधान की तरह श्रीवैष्णव मत स्वीकार करनेवाले प्रथम दर्जे की प्रजा हैं, बाकी सब दूसरे दर्जे के लोग हैं-~-ऐसी धारणा बन जाना स्वाभाविक ही है। प्रधानजी ने और कुछ अन्य लोगों ने मुझसे कहा है। सभी मतावलम्बी समान हैं या नहीं, अब यह प्रश्न हमारे सामने है। इस सम्बन्ध में महासन्निधान अपना निर्णय सुनावें।" कहकर शान्तलदेवी बैठ गयीं।
''पोय्सल सदा ही एक बात पर अटल रहे हैं। हमारी पट्टमहादेवीजी का जैन होकर रहना इसका प्रमाण है । मतावलम्बन व्यक्तिगत विषय है। इस वजह से शासन किसी को ऊँचा या किसी को नीचा नहीं मानता। इस विषय में किसी को शंका-सन्देह करने की जरूरत नहीं।" चिट्टिदेव ने जोर देकर कहा।
"अब आगे कार्य कैसे चले, इस बात का निर्णय होना चाहिए । सब समान हैं, इसी निर्णय के आधार पर इस विषय का परिशीलन करना होगा।" शान्तलदेबी ने प्रस्तुत विषय की ओर आकर्षित किया।
बिट्टिदेव ने आगमशास्त्रियों के प्रमुख से कहा, "आप लोग अपनी राय सभासदों को सुनाइए, क्योंकि इस कार्य को श्री आचार्यजी के आदेश के अनुसार ही सम्पन्न करना है। उन्होंने इस सम्बन्ध में आप लोगों को सूचित किया ही होगा, ऐसा नैं समझता
"अपने सम्प्रदाय के अनुसार प्रतिष्ठा का सपारम्भ हो, यही आज्ञा दी थी।" "मतलब?"
"मतलब यह कि श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के अनुसार ही--यह स्पष्ट है।'' बीच में ही तिरुवरंगदास बोल उठा।
उनकी तरफ मुड़कर बिट्टिदेव ने पूछा, "ठीक । कोई चिन्ता नहीं। वे हमें निर्देश दें या आपका निर्देश उनके लिए स्वीकृत हो, दोनों एक ही बात है। वह सम्प्रदाय, वह रीति क्या है?"
"मुल मूर्ति श्रीवैष्णव मत से सम्बन्धित है। प्रतिष्ठा करने वाले सभी को श्रीवैष्णव ही होना चाहिए- यही रीति है। है न आगमशास्त्री जी?" तिरुवरंगदास ने कहा; मानो कोई मजबूत नींव उसे उस समय मिल गयी।
"श्रीवैष्णव सम्प्रदाय ही क्यों, सभी सम्प्रदाय यही बताते हैं। यह बात सन्निधान जानते नहीं, सी तो नहीं।" राजमहल के पुरोहितजी ने कहा।
बिट्टिदेव ने कहा, "पट्टमहादेवीजी, राजमहल के पुरोहित वर्ग, आगमशास्त्री और स्थपति, सभी को यह बात स्पष्ट रूप से मालूम है। परन्तु जब मत के बहाने दुर्भावनाएं फन फैलाती हैं, तो वे कहाँ किस रूप में प्रकट होंगी यह कहा नहीं जा
18 :: पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार