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बिदिदेव की दृष्टि तुरन्त शान्तलदेवी की ओर गयी। उन्होंने उस दृष्टि का उत्तर अपनी दृष्टि के ही द्वारा दिया। उन्हें पहले हुई चर्चा की याद आयी परन्तु अब कदम आगे बढ़ जाने के बाद पीछे नहीं लौटाया जा सकता था।
"ठसे मान लेंगे। उक्ति भी हैं, 'यथा राजा तथा प्रजा ।' यहाँ राजा ने नये धर्म में नयी रोशनी देखी और नये धर्मावलम्बी बने। किसी तरह के लालच में पड़कर नहीं, यह न भूलें । हमें किस बात की कमी थी? आपन भी हमारी तरह नये विश्वास के साथ परिवर्तन किया होता तो वह अलग बात होती। आप तो केवल लालच में पड़कर मतान्तरित हुए।"
'प्रत्येक की रुचियाँ -अभिलाषाएँ अलग-अलग हुआ करती हैं।" "मतलब?"
"मैं गरीन्त्र हूँ। परिवार बड़ा है। किसी तरह जीना है। अच्छा धन्धा मिले, यही हमारी आकांक्षा रही है। इसी तरह कम उम्र की युवती, श्रीवैष्णव कन्या मिले महासन्निधान की भी तो ऐसी ही इच्छा थी।"
"छिः छिः । यह कैसी बात है? ऐसा भी कोई सोच सकता है?'' लोगों में फुसफुसाहट शुरू हो गयी।
गंगराज उठ खड़े हुए। चाविमय्या ने जोर से कहा, "खामोश, खामोश!" ।
"कई रानियों को रखने का हक है महाराज को। किसी लालच में पड़कर उन्होंने किसी से विवाह नहीं किया है। ऐसे प्रत्येक प्रसंग में सबकी स्वीकृति पाकर ही किया है। आचार्यजी, आपने अनुचित बात कही है। चूँकि आप बुजुर्ग हैं, हम चुप रहते हैं। आपकी यह बात सिंहासन के लिए अपमानजनक है। ऐसी बात फिर कभी आपके मुंह से निकली तो आपको देश निकाले का दण्ड भीगना पड़ेगा। सावधान!" गंगराज ने कहा।
"मैंने जो सुना और जिस पर विश्वास किया, उसे कह दिया। सन्निधान की साफ-साफ ऐसी ही आज्ञा थी, इसी से कहा। मैं स्वयं तो यहाँ नहीं आया। कहने की छूट न हो, तो नहीं कहूँगा। बुलावा आया सो आया। हुक्म हुआ, कह दिया।"
"अच्छा आचार्यजी, आपको ये सब बातें किसने बतायीं? वे आपके विश्वास पात्र कैसे हुए, बताइए।" बिट्टिदेव ने पूछा। ___ श्रीनिवास बरदाचार्य अन्यमनस्क-से खड़े रहे। बगलें झाँकने लगे।
"अच्छा जाने दीजिए। राजमहल को मालूम है कि कौन है। अब उन केशवाचार्य को बुलाओ, वे बोलें।" बिट्टिदेव ने आज्ञा दी।
चाविमय्या ने जोर से आवाज दी, "केशवाचार्य !" कोई नहीं उठा। 'किक्केरी केशवाचार्य पंच पर आवें।'' चाविमय्या ने फिर जोर से आवाज दी।
16 :: पट्टमहादेवा शान्तला : भाग चार