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"जी हाँ।" "उस सुनने के फलस्वरूप आपके मन में कौन-सी भावना उत्पन्न हुई?" "उन सब बातों को इतने लोगों के सामने कैसे कहें ?" "डर क्या है?" " महा संकोच है।
"शहर की गोटियों में मनमानी कह सकने वाली आपकी यह जिह्वा अब बोलते हुए संकोच कर रही है? विश्वास कुछ ढीला पड़ गया है?"
"हो सकता है।" "अच्छा जाने दीजिए। आपकी धारणा क्या थी?"
"यहाँ हमारे श्रीवैष्णव धर्म पर आघात होने की सम्भावना है। अन्य धर्मी आघात पहुंचाने पर तुले हुए हैं।"
"आपकी दृष्टि में कौन हैं ऐसे लोग?" "सो भी उसी पर निर्भर करता है जो हमने सुना है।" "क्या सुना है?"
"इस स्थपति को अपने वश में करके. विधर्मी पट्टमहादेवी ने जानबूझकर श्रीवैष्णव धर्म का अपमान कर, इस मत के आचार्य की बुराई करने की दृष्टि से दोषपूर्ण पत्थर से विग्रह बनवाया है।"
"किसी ने कहा और आपने विश्वास कर लिया?"
"हाँ।"
"एक राज्य की पट्टमहादेवी का क्या अर्थ है, उनका स्थान-मान क्या है, उनकी जिम्मेदारियाँ क्या हैं, आप जानते हैं?"
"हमें क्या मालूप? हम समझते हैं कि जैसे हमारे घर में हमारी पहली पत्नी
"ऐसी दशा में आपका विश्वास सहज है। बेचारे, आप नासमझ हैं। लोगों को बातों में आ गये। आपको इस अज्ञानता से हमारी आपके प्रति महानुभूति है। एक और बात, जब आप अद्वैती थे तब क्या कार्य कर रहे थे?"
''मैं तब परिचारक था। मन्दिर की रसोई में काम करता था।'' "और अब?" “निर्वाहक हूँ।"
"ओफ-ओह ! मत-परिवर्तन करने के लिए यही लालच रहा है, ऐसा मालूम पड़ता है।"
"वह भी एक कारण है। साथ ही जब महासन्निधान स्वयं आचार्यजी के शिष्य हो गये तो प्रजाजन के लिए कौन रोक सकता है ?"
पट्टमहादेवी शान्तला : भार भार :: 15