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कोई नहीं उठा।
"आये थे, प्रभु । मिछली कतार में दरवाजे के पास बैठे थे।"
"तो यहाँ हमारे सपक्ष, इस सभा के सामने बोलने से डर रहे होंगे। श्रीनिवास वरदाचार्यजी आपको उन्होंने ही ये बातें बतायी हैं, न?"
"हाँ प्रभु।"
"देखा? वे अब क्यों खिसक गये? सो भी आकर चले गये! सत्य बात कहने का साहस नहीं था, यही है न इसका अर्थ? ऐसी दशा में आपने जिसे सत्य माना था उसका क्या मूल्य हुआ?''
श्रीनिवास वरदाचार्य का सिर लज्जा से झुक गया।
"आपने जो जाना वह गलत, और जो कहा सो भी गलत । इतना अगर आप समझ चुके हों तो काफी है। फिलहाल बैठ जाइए। केशवाचार्य से किसने कहा सो भी राजमहल को मालूम है। अभी यह सभा भी जान जाएगी कि यह क्यों बुलायी गयो । धर्म का दुरुपयोग एवं बेहद अन्ध-श्रद्धा, इनके कारण इस तरह की अफवाहों से लोगों को उकसाने का काम चल रहा है। इतना ख़र्च करके, राज्य के कोने-कोने से श्रेष्ठ शिल्पियों को बुलवाकर इस पन्दिर का निर्माण केवल तिलकधारी श्रीवैष्णवों के हो लिए नहीं करवाया गया है, इस पोय्सल राज्य के समस्त श्रद्धालु जनों की मनःशान्ति तथा सुख एवं ज्ञान और संस्कृति के विकास के लिए किया गया है। आप जैसे अन्धविश्वासी जनों को हमारी इन बातों से असन्तुष्ट होने की जरूरत नहीं। आप बुजुर्ग हैं। अर्थहीन अन्ध-विश्वास के वशीभूत होकर केवल बाह्य-आडम्बर को देख धोखे में पड़े हैं। इन वेषधारी लोगों के अन्तर में क्या है, सो समझ में नहीं आता। राजमहल में सच्चाई को समझने-जानने की शक्ति हैं। आपने जिस केशवाचार्य का नाम बताया वह वास्तव में श्रीवैष्णव है ही नहीं। वह हमारे शत्रुओं का गुप्तचर है। शायद उसने समझा होगा कि उसकी गुप्तचरी के बारे में हमें मालूम नहीं। इसीलिए यहां इतने लोगों के समक्ष उपस्थित होने के डर से खिसक गया है। फिर भी वह निकलकर कहीं नहीं जा सकेगा। हमारे गुप्तचर सदा उसके पीछे लगे ही रहते हैं। अभी थोड़ी ही देर में उसे इस सभा के सम्मुख पेश किया जाएगा। उसके वक्तव्य से मालूम पड़ जाएगा कि कौन लोग ये बातें कर रहे हैं। सारी बातें राजमहल से सम्बन्धित लोगों के हो द्वारा निकली हैं, यह परम आश्चर्यजनक बात भी स्पष्ट हो जाएगी।' बिट्टिदेव ने कहा।
तिरुवरंगदास के शरीर पर से दुशाला फिसलता रहा, वह जल्दी जल्दी उसे ठीक करता हुआ बीच-बीच में लक्ष्मीदेवी की ओर देखता रहा। वह भौचक्की-सो बैठी रही।
पट्टमहादेवी उठ खड़ी हुई और कहने लगी, "महासन्निधान की सेवा में मेरी एक विनती है । मैं अब पट्टमहादेवो की हैसियत से बात नहीं कर रही है। एक साधारण
पट्टमहादेवी शान्तला : भाग चार :: 17