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(१) राग और द्वेष के वश न हो कर समभाव - मध्यस्थभाव में रहना अर्थात् सब के साथ आत्मतुल्य व्यवहार करना 'सामायिक' है (आ० नि०, गा० १०३२) । इस के ( १ ) सम्यक्त्वसामायिक, (२) श्रतसामायिक और (३) चारित्रसामायिक, ये तीन भेद हैं । क्योंकि सम्यक्त्व द्वारा, श्रत द्वारा या चारित्र द्वारा ही समभाव में स्थिर रहा जा सकता है | चारित्रसामायिक भी अधिकारी की अपेक्षा से (१) देश और ( २ ) सर्व, यों दो प्रकार का है । देशसामायिक चारित्र गृहस्थों को और सर्वसामायिकचारित्र साधुओं को होता है (आ० नि०, गा० ७९६) । समता, सम्यक्त्व, शान्ति, सुविहित आदि शब्द सामायिक के पर्याय हैं (आ० नि०, गा० १०३३) ।
(२) चतुर्विंशतिस्तवः -- चौबीस तीर्थंकर, जो कि सर्वगुण सम्पन्न आदर्श हैं, उनकी स्तुति करने रूप है । इस के (१) द्रव्य और (२) भाव, ये दो भेद हैं । पुष्प आदि सात्त्विक वस्तुओं के द्वारा तर्थिंकरों की पूजा करना 'द्रव्यस्तव' और उन के वास्तविक गुणों का कीर्तन करना 'भावस्तव' है (आ०, पृ० ४९२ ) । अधिकारी - विशेष -गृहस्थ के लिये द्रव्यस्तव कितना लाभदायक है, इस बात को विस्तारपूर्वक आवश्यक-निर्युक्ति, पृ० ४९२- ४९३ में दिखाया है ।
(३) वन्दन : - मन, वचन और शरीर का वह व्यापार वन्दन है, जिस से पूज्यों के प्रति बहुमान प्रगट किया जाता है । शास्त्र में वन्दन के चिति-कर्म, कृति- कर्म, पूजा-कर्म आदि पर्याय प्रसिद्ध हैं ( आ० नि०, गा० ११०३) । वन्दन के
यथार्थ स्वरूप
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